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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
तर्कशास्त्र की भाषा में वे दोनों ही नैतिकता की महाजाति की दो उपजातियों के रूप होते हैं, जिनमें विपरीतता तो है, लेकिन व्याघातकता नहीं है। लोकहित और आत्महित में विरोध और संघर्ष तो तब होता है, जब उनमें से कोई भी नैतिकता का अतिक्रमण करता है। भगवान बुद्ध का कहना यही था कि यदि आत्महित करना है, तो नैतिकता की सीमा में करो
और यदि परहित करना है, तो वह भी नैतिकता की सीमा में, धर्म की मर्यादा में रहकर ही करो। नैतिकता और धर्म से दूर होकर किया जाने वाला आत्महित स्वार्थ साधन' है और लोकहित सेवा का निरा ढोंग है । बुद्ध ने आत्महित और लोकहित-दोनों को ही नैतिकता के क्षेत्र में लाकर परखाऔर उनमें अविरोध पाया। श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में, बुद्ध के मौलिक उपदेशों में आत्मकल्याण और परकल्याण ,आत्मार्थ और परार्थ, ध्यान और सेवा-दोनों का उचित संयोग है। आत्मकल्याण और परकल्याण में वहाँ कोई विभाजकरेखा नहीं थी। बुद्ध आत्मार्थ और परार्थ के सम्यक् रूप को जानने पर बल देते हैं । उनके अनुसार, यथार्थ दृष्टि से आत्मार्थ और परार्थ में अविरोध है। आत्मार्थ और परार्थ में विरोध तो उसी स्थिति में दिखाई देता है, जब हमारी दृष्टि राग, द्वेष तथा मोह से युक्त होती है। राग, द्वेष और मोह का प्रहाण होने पर उनसे कोई विरोध दिखाई ही नहीं देता, स्व और पर का विरोध तो राग और द्वेष में ही है। जहाँ राग-द्वेष नहीं है, वहाँ कौन अपना और कौन पराया? जब मनुष्य राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है, तब वहाँ न आत्मार्थ रहता है, न परार्थ, वहाँ तो केवल परमार्थ रहता है। इसमें यथार्थ आत्मार्थ और यथार्थ परार्थ-दोनों ही एकरूप हैं। तथागत के अन्तेवासी शिष्य आनन्द कहते हैं, "आयुष्मान् ! जो राग से अनुरक्त है, जो राग के वशीभूत है, जो द्वेष से दुष्ट है, द्वेष के वशीभूत है, जो मोह से मूढ़ है, मोह के वशीभूत है, वह यथार्थ आत्मार्थ को भी नहीं पहचानता है, यथार्थ परार्थ को भी नहीं पहचानता है, यथार्थ उभयार्थ को भी नहीं पहचानता है। राग का नाश होने पर, द्वेष का नाश होने पर..... मोह का नाश होने पर-वह यथार्थ आत्मार्थ भी पहचानता है, यथार्थ परार्थ भी पहचानता है, यथार्थ उभयार्थ भी पहचानता है।"44
राग, द्वेष और मोह का प्रहाण होने पर ही मनुष्य अपने वास्तविक हित को, दूसरों के वास्तविक हित को तथा अपने और दूसरों के वास्तविक सामूहिक या सामाजिक-हित को जान सकता है। बुद्ध के अनुसार, पहले यह जानो कि अपना और दूसरों का अथवा समाज का वास्तविक कल्याण किसमें है। जो व्यक्ति अपने, दूसरों के और समाज के वास्तविक हित को समझे बिना ही लोकहित, परहित एवं आत्महित का प्रयास करता है, वह वस्तुतः किसी का भी हित नहीं करता है।
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