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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक-विकास की दृष्टि से ऊँचाईयों पर पहुंच सकता है।
श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि व्यक्ति चाहे अत्यन्त दुराचारी रहा हो, अथवा स्त्री, शूद्र या वैश्य हो, अथवा ब्राह्मण या राजर्षि हो, यदि वह सम्यक्ररूपेण मेरी उपासना करता है, तो वह श्रेष्ठ गति को ही प्राप्त करता है। 26 इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गीता के अनुसार आध्यात्मिक-विकास का द्वार सभी के लिए समान रूप से खुला हुआ है। जो लोग नैतिक या आध्यात्मिक-विकासको आचरण के बाह्य-तों या वैयक्तिक-जीवन के पूर्वरूप या व्यक्ति के सामाजिक-स्वस्थान से बांधने की कोशिश करते हैं, वे भ्रान्ति में हैं। गीता के आचार-दर्शन के अनुसार सामाजिक-स्वस्थान के कर्त्तव्यों के परिपालन और नैतिक या आध्यात्मिक-विकास के कर्त्तव्यों में कोई संघर्ष नहीं, क्योंकि दोनों के क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार, गीता के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का सम्बन्ध सामाजिक-कर्त्तव्यों के परिपालन से है, लेकिन विशिष्ट सामाजिक-कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनताका सम्बन्ध तो उसके नैतिक एवं आध्यात्मिक-विकास से है।
इस प्रकार; जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में समान दृष्टिकोण रखते हैं। उनके दृष्टिकोण को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है -
1. वर्ण का आधार जन्म नहीं, वरन् गुण (स्वभाव) और कर्म है। 2. वर्ण अपरिवर्तनीय नहीं है। व्यक्ति अपने स्वभाव, आचरण और कर्म में परिवर्तन
कर वर्ण परिवर्तित कर सकता है। 3. वर्ण का सम्बन्ध सामाजिक-कर्तव्यों से है, लेकिन कोई भी सामाजिक
कर्त्तव्य या व्यवसाय अपने-आप मेंन श्रेष्ठ है, नहीन है। व्यक्ति की श्रेष्ठता और हीनता उसके सामाजिक-कर्त्तव्य पर नहीं, वरन् उसकी नैतिक-निष्ठा पर निर्भर है। 4. नैतिक एवं आध्यात्मिक-विकास का अधिकार सभी वर्ण के लोगों को प्राप्त है।
आश्रम-धर्म 'आश्रम' शब्द श्रम से बना है। श्रम का अर्थ है-प्रयास या प्रयत्न। जीवन के विभिन्न साध्यों की उपलब्धि के लिए प्रत्येक आश्रम में एक विशेष प्रयत्न होता है। जिस प्रकार जीवन के चार साध्य या मूल्य-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माने गए हैं, उसी प्रकार जीवन के इन चार साध्यों की उपलब्धि के लिए, इन चार आश्रमों का विधान है। ब्रह्मचर्याश्रम विद्यार्जन
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