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वर्णाश्रम व्यवस्था
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अपने गुणों या योग्यताओं के प्रतिकूल व्यवसाय या सामाजिक-कर्त्तव्य को चुनता है, तो उसके इस चयन से जहाँ उसके जीवन की सफलताधूमिल होती है, वहीं समाज-व्यवस्था मे भी अस्तव्यस्तता आती है।
गीता में वर्ण-व्यवस्था के पीछे एक मनोवैज्ञानिक-आधार रहा है, जिसका समर्थन डॉ. राधाकृष्णन् और पाश्चात्य-विचारक श्री गैरल्ड हर्ड ने भी किया है। मानवीयस्वभाव में ज्ञानात्मकता या जिज्ञासावृत्ति, साहस या नेतृत्व-वृत्ति, संग्रहात्मकता और शासित होने की प्रवृत्ति या सेवा-भावना पाई जाती है। सामान्यतः, मनुष्यों में इन वृत्तियों का समान रूप से विकास नहीं होता है। प्रत्येक मनुष्य में इनमें से किसी एक का प्राधान्य होता है। दूसरी ओर, सामाजिक-दृष्टि से समाज-व्यवस्था में चार प्रमुख कार्य हैं-1. शिक्षणु, 2. रक्षणु, 3. उपार्जन और 4. सेवा, अतः यह आवश्यक माना गया है कि व्यक्ति, अपने स्वभाव में जिस वृत्ति का प्राधान्य हो, उसके अनुसार सामाजिक-व्यवस्था में अपना कार्य चुने। जिसमें बुद्धि-नैर्मल्य और जिज्ञासा-वृत्ति हो, वह शिक्षण का कार्य करे, जिसमें साहस और नेतृत्व-वृत्ति हो, वह रक्षण का कार्य करे, जिसमें विनियोग तथा संग्रह-वृत्ति हो, वह उपार्जन का कार्य करे और जिसमें दैन्यवृत्ति या सेवावृत्ति हो, वह सेवाकार्य करे। इस प्रकार, जिज्ञासा, नेतृत्व, विनियोग और दैन्य की स्वाभाविक वृत्तियों के आधार पर शिक्षण, रक्षण, उपार्जन और सेवा के सामाजिक-कार्यों का विभाजन किया गया और इसी आधार पर क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये वर्ण बने। इस स्वभाव के अनुसार व्यवसाय या वृत्ति में विभाजन में श्रेष्ठत्व और हीनत्व का कोई प्रश्न नहीं उठता। गीता तो स्पष्ट रूप से कहती है कि जिज्ञासा, नेतृत्व, संग्रहवत्ति और दैन्य आदि सभी वृत्तियाँ त्रिगुणात्मक हैं, अतः सभी दोषपूर्ण हैं।25 गीता की दृष्टि में नैतिकश्रेष्ठत्व इस बात पर निर्भर नहीं है कि व्यक्ति क्या कर रहा है, या किन सामाजिककर्तव्यों का पालन कर रहा है, वरन् इस बात पर निर्भर है कि वह उनका पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर रहा है। गीता के अनुसार, यदि एक शूद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा और कुशलता से करता है, तो वह अनैष्ठिक और अकुशल ब्राह्मण की अपेक्षा नैतिक-दृष्टि से श्रेष्ठ है। गीता के आचार-दर्शन की भी यह विशिष्टता है कि वह भी जैन-दर्शन के समान साधना-पथ का द्वार सभी के लिए खोल देता है। गीता यद्यपि वर्णाश्रम-धर्म को स्वीकृत करती है, लेकिन उसका वर्णाश्रम-धर्म तो सामाजिकमर्यादा के सन्दर्भ में ही है। आध्यात्मिक-विकास का सामाजिक-मर्यादाओं के परिपालन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। गीता स्पष्टतया यह स्वीकार करती है कि व्यक्ति सामाजिक
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