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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
सम्पदा से युक्त है। जिसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं है, ऐसे आसुरी-प्रकृति के व्यक्ति में न तो शुद्धि होती है,न सदाचार होता है और न सत्य होता है। 54
उपसंहार- इस प्रकार विवेच्य आचार-दर्शनों में प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों को स्वीकार किया गया है, फिर भी जैन-दर्शन का दृष्टिकोण निवृत्तिप्रधान प्रवृत्ति का है। वह निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति का विधान करता है। बौद्ध-दर्शन में निवृत्ति और प्रवृत्ति-दोनों का समान महत्व है, यद्यपि प्रारंभिक बौद्ध-दर्शन निवृत्यात्मक-प्रवृत्ति का ही समर्थक था। गीता का दृष्टिकोण प्रवृत्तिप्रधान-निवृत्ति का है। वह प्रवृत्ति के लिए निवृत्ति का विधान करती है। जहां सामान्य व्यावहारिक-जीवन की बात है, हमें प्रवृत्ति और निवत्ति-दोनों को स्वीकार करना होगा। दोनों की अपनी-अपनी सीमाएँ एवं क्षेत्र हैं, जिनका अतिक्रमण करने पर उनका लोकमंगलकारी स्वरूप नष्ट हो जाता है। निवृत्ति का क्षेत्र आन्तरिक एवं आध्यात्मिक-जीवन है और प्रवृत्ति का क्षेत्र बाह्य एवं सामाजिक-जीवन है। दोनों को एकदूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। निवृत्ति उसी स्थिति में उपादेय हो सकती है, जबकि वह निम्न सीमाओं का ध्यान रखे
1. निवृत्ति को लोककल्याण की भावना से विमुख नहीं होना चाहिए। 2. निवृत्ति का उद्देश्य मात्र अशुभ से निवृत्ति होना चाहिए। 3. निवृत्यात्मक-जीवन में साधक की सतत जागरूकता होना चाहिए, निवृत्ति मात्र आत्मपीड़न बनकर न रह जाए, वरन् व्यक्ति के आध्यात्मिक-विकास में
सहायक भी हो।
इसी प्रकार, प्रवृत्ति भी उसी स्थिति में उपादेय है, जबकि वह निम्न सीमाओं का ध्यान रखे
1. यदि निवृत्ति और प्रवृत्ति अपनी-अपनी सीमाओं में रहते हुए परस्पर अविरोधी
हों, तो ऐसी स्थिति में प्रवृत्ति त्याज्य नहीं है। 2. प्रवृत्ति का उद्देश्य हमेशा शुभ होना चाहिए। 3. प्रवृत्ति में क्रियाओं का सम्पादन विवेकपूर्वक होना चाहिए। 4. प्रवृत्ति राग-द्वेष अथवा मानसिक-विकारों (कषायों) के वशीभूत होकर नहीं
की जानी चाहिए। इस प्रकार, निवृत्ति और प्रवृत्ति अपनी मर्यादाओं में रहती हैं, तो वे जहाँ एक ओर सामाजिक-विकास एवं लोकहित में सहायक हो सकती हैं, वहीं दूसरी ओर, व्यक्ति को आध्यात्मिक-विकास की ओर भी ले जाती हैं। अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही नैतिक-आचरण का सच्चा मार्ग है।
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