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भारतीय-दर्शन में सामाजिक-चेतना
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गीता में सामाजिक-चेतना ___यदिहम उपनिषदों से महाभारत और उसके ही एक अंश गीता की ओर आते हैं, तो यहाँ भी हमें सामाजिक-चेतनाका स्पष्ट दर्शन होता है। महाभारत तो इतना व्यापक ग्रन्थ है कि उसमें उपस्थित समाज-दर्शन पर एक स्वतन्त्र महानिबन्ध लिखा जा सकता है। सर्वप्रथम महाभारत में हमें समाज की आंगिक-संकल्पना का वह सिद्धान्त परिलक्षित होता है, जिस पर पाश्चात्य-चिन्तन में सर्वाधिक बल दिया गया है। गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है। गीताकार कहता है कि
'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः॥
अर्थात्, जो सुख-दुःख की अनुभूति में सभी को अपने समान समझता है, वही सच्चा योगी है। मात्र इतना ही नहीं, वह तो इससे आगे यह भी कहता है कि सच्चा दर्शन या ज्ञान वही है, जो हमें एकात्मता की अनुभूति कराता है - 'अविभवतं विभवतेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ।' वैयक्तिक-विभिन्नताओं में भी एकात्मता की अनुभूति ही ज्ञान की सात्विकता और हमारी समाज-निष्ठा का एकमात्र आधार है। सामाजिक-दृष्टि से गीता 'सर्वभूत-हिते रताः' का सामाजिक-आदर्श भी प्रस्तुत करती है। अनासक्त-भाव से युक्त होकर लोक-कल्याण के लिए कार्य करते रहना ही गीता के समाज-दर्शन का मूल मन्तव्य है। श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं -
'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितेरताः। मात्र इतना ही नहीं, गीता में सामाजिक-दायित्वों के निर्वहन पर भी पूरा-पूरा बल दिया गया है। जो अपने सामाजिक-दायित्वों को पूर्ण किए बिना भोग करता है, वहगीताकार की दृष्टि में चोर है (स्तेन एव सः, 3/12), साथ ही जो मात्र अपने लिए पकाता है, वह पाप का ही अर्जन करता है। (भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्, 3/13)। गीता हमें समाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती है, इसलिए उसने संन्यास की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है। वह कहती है कि
'काम्यानां कर्मणांन्यासं संन्यासं कवयो विदुः''
काम्य, अर्थात् स्वार्थयुक्त कर्मों का त्याग ही संन्यास है, केवल निरग्नि और निश्रिय हो जाना संन्यास नहीं है। सच्चे संन्यासी का लक्षण है-समाज में रहकर लोककल्याण के लिए अनासक्त-भाव से कर्म करता रहे।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्य करोति यः। स संन्यास च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥'
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