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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
का परित्याग कर देना मात्र नहीं है। वास्तविक संन्यास तो कर्म-फल, संकल्प, आसक्ति या वासनाओं का परित्याग करने में नहीं मानना चाहिए। कर्म-फल के संकल्प का त्याग होने से ही संन्यासित्व है-4, न केवल अग्निरहित और क्रियारहित (व्यक्ति) संन्यासी या योगी होता है, किन्तु जो कोई कर्म करने वाला (गृहस्थ) भी कर्मफल और आसक्तिको छोड़कर अन्तःकरण की शुद्धिपूर्वक कर्मयोग में स्थित है, वह भी संन्यासी और योगी है।
वस्तुतः, गीताकार की दृष्टि में संन्यासमार्ग और कर्ममार्ग-दोनों ही परमलक्ष्य की ओर ले जाने वाले हैं, जो एक का भी सम्यक्प से पालन करता है, वह दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। जिस स्थान की प्राप्ति एक संन्यासी करता है, उसी स्थान की प्राप्ति एक अनासक्त-गृहस्थ (कर्मयोगी) भी करता है। 7 गीताकार का मूल उपदेश न तो कर्म करने का है और न कर्म छोड़ने का है। उसका मुख्य उपदेश तो आसक्ति या कामना के त्याग का है। गीताकार की दृष्टि में नैतिक-जीवन का सार तो आसक्ति या फलाकांक्षा का त्याग है। जो विचारक गीता की इस मूल भावना को दृष्टि में रखकर विचार करेंगे, उन्हें कर्म-संन्यास और कर्मयोग में अविरोध ही दिखाई देगा। गीता की दृष्टि में कर्मसंन्यास और कर्मयोग-दोनों नैतिक-जीवन के बाह्य-शरीर हैं, नैतिकता की मूलात्मा समत्व या निष्कामता है। यदि निष्कामता है, समत्वयोग की साधना है, वीतरागदृष्टि है, तो कर्मसंन्यास की अवस्था हो या कर्मयोग की-दोनों ही समान रूप से नैतिक-आदर्श की उपलब्धि कराते हैं। इसके विपरीत, यदि उनका अभाव है, तो कर्मयोग और कर्मसंन्यास-दोनों ही अर्थशून्य हैं, नैतिकता की दृष्टि से उनका कुछ भी मूल्य नहीं है। गीताकार का कहना है कि यदि साधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर संन्यासमार्ग (कर्मसंन्यास) को अपनाता है, तो उसे यह स्मरण रखना चाहिए कि जब तक कर्मासक्ति या फलाकांक्षा समाप्त नहीं होती, तब तक केवल कर्मसंन्यास से मुक्ति नहीं मिल सकती। दूसरी ओर, यदि साधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर कर्मयोग के मार्ग को चुनता है, तो भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि फलाकांक्षा या आसक्ति का त्याग तो अनिवार्य है।
संक्षेप में, गीताकार का दृष्टिकोण यह है कि यदि कर्म करना है, तो उसे अनासक्तिपूर्वक करो और यदि कर्म छोड़ना है, तो केवल बाह्य-कर्म का परित्याग ही पर्याप्त नहीं है, कर्म की आन्तरिक-वासनाओं का त्याग भी आवश्यक है। गीता में बाह्य-कर्म करने और छोड़ने का जो विधि-निषेध है, वह औपचारिक है, कर्त्तव्यता का प्रतिपादक नहीं है। वास्तविक कर्त्तव्यता का प्रतिपादक विधि-निषेध तो आसक्ति, तृष्णा, समत्व आदि के सम्बन्ध में है। गीता का प्रतिपाद्य विषय तो समत्वपूर्ण वीता टेकी प्राप्ति और
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