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सम्यग्ज्ञान ( ज्ञानयोग)
बौद्ध दर्शन में भेदाभ्यास- जिस प्रकार जैनन-साधना में सम्यग्ज्ञान या. प्रज्ञा का वास्तविक उपयोग भेदाभ्यास माना गया, उसी प्रकार बौद्ध-साधना में भी प्रज्ञा का वास्तविक उपयोग अनात्म की भावना में माना गया है। भेदाभ्यास की साधना में जैन-साधक वस्तुतः स्वभाव के यथार्थज्ञान के आधार पर स्वस्वरूप (आत्म) और परस्वरूप (अनात्म) में भेद स्थापित करता है और अनात्म में रही हुई आत्म- बुद्धि का परित्याग कर अन्त में अपने साधना के लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति करता है। बौद्ध-साधना में भी साधक प्रज्ञा के सहारे जागतिक - उपादानों (धर्म) के स्वभाव का ज्ञान कर उनके अनात्म-स्वरूप में आत्म - बुद्धि का परित्याग कर निर्वाण का लाभ करता है। अनात्म के स्वरूप का ज्ञान और उसमें आत्मबुद्धि का परित्याग दोनों दर्शनों में साधना के अनिवार्य तत्त्व हैं। जिस प्रकार जैन- विचारकों रूप, रस, वर्ण, देह, इन्द्रिय, मन, अध्यवसाय आदि को अनात्म कहा, उसी प्रकार बौद्धआगमों में भी देह, इन्द्रियाँ, उनके विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श तथा मन आदि को
नाम कहा गया है और दोनों ने साधक के लिए यह स्पष्ट निर्देश किया कि वह उनमें आत्म- बुद्धिं न रखे। लगभग समान शब्दों और शैली में दोनों ही अनात्म-भावना या भेदविज्ञान की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं, जो तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययनकर्ता के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस सन्दर्भ में बुद्ध वाणी है।
“भिक्षुओं! चक्षु अनित्य है, जो अनित्य है, वह दुःख है, जो दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए ।"
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“भिक्षुओं ! घ्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य है, मन अनित्य है, जो अनित्य है, वह दुःख है, जो दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।"
“भिक्षुओं ! रूप अनित्य है, जो अनित्य है, वह दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।” “भिक्षुओ ! शब्द अनित्य है. । गंध .... । रस.... । स्पर्श.... । धर्म अनित्य है, जो अनित्य है, वह दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।”
“भिक्षुओं ! इसे जान पण्डित आर्यश्रावक चक्षु में वैराग्य करता है, श्रोत्र में, घ्राण में, जिह्वा में, काया में, मन में वैराग्य करता है । वैराग्य करने से, रागरहित होने से विमुक्त हो जाता है । विमुक्त होने से, विमुक्त हो गया - ऐसा ज्ञान होता है। जाति क्षीण हुई, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, जो करना था, सो कर लिया, पुनः जन्म नहीं होगा - मान लेता है ।'
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