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भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
सुधार सम्भव नहीं। प्रायश्चित्त इस प्रकार का है 44
1.
आलोचना - गलती या असदाचरण के लिए पश्चाताप करना ।
2. प्रतिक्रमण - चारित्रिक पतन से पुनः लौट जाना । अपनी गलती को सुधार लेना।
3. तदुभय - आलोचना और प्रतिक्रमण- दोनों को स्वीकार करना ।
4. विवेक - गलती या असदाचरण को असदाचरण के रूप में जान लेना । 5. कायोत्सर्ग - प्रायश्चित्तस्वरूप कायोत्सर्ग करना, अथवा असदाचरण का परित्याग करना ।
6. तपस्या - अपराध या गलती के होने पर आत्मशुद्धि के निमित्त उपवास आदि तप स्वीकार करना ।
7. छेद - मुनि-जीवन में दीक्षापर्याय का कम कर देना छेद है, अर्थात् अपराधी भिक्षु की श्रमण - जीवन की वरीयता को कम करना ।
8. मूल - पूर्व के श्रमण - जीवन या दीक्षा पर्याय को समाप्त कर पुनः दीक्षा देना, अथवा पुनः नए सिरे से श्रमण- जीवन का प्रारम्भ करना ।
9. परिहार - अपराधी श्रमण को श्रमण संस्था से बहिष्कृत करना ।
10. श्रद्धान- मिथ्या दृष्टिकोण के उत्पन्न हो जाने पर उसका परित्याग कर सम्यक् दर्शन को पुनः प्राप्त करना ।
2. विनय - प्रायश्चित्त बिना विनय के सम्भव नहीं है। विनयशील ही आत्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त ग्रहण करता है । विनय का वास्तविक अर्थ वरिष्ठ एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए अनुशासित जीवन जीना है । विनय के सात भेद हैं- 1. ज्ञान - विनय, 2. दर्शन - विनय, 3. चारित्र - विनय, 4. मनोविनय, 5. वचन - विनय, 6. काय-विनय और 7. लोकोपचार- विनय । शिष्टाचार के रूप में किए गए बाह्य उपचार को लोकोपचार- विनय कहा जाता है।
3. वैयावृत्य - वैयावृत्य का अर्थ सेवा-शुश्रूषा करना है । भिक्षु संघ में दस प्रकार Share सेवा करना भिक्षु का कर्तव्य है - 1. आचार्य, 2. उपाध्याय, 3. तपस्वी, 4. गुरु, 5. रोगी, 6. वृद्ध मुनि, 7. सहपाठी, 8. अपने भिक्षु संघ का सदस्य, 9. दीक्षा स्थविर और 10. लोक - सम्मानित भिक्षु । इन दस की सेवा करना वैयावृत्य - तप है। इसके अतिरिक्त, संघ (समाज) की सेवा भी भिक्षु का कर्तव्य है ।
4. स्वाध्याय - स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ आध्यात्मिक-साहित्य का पठन
पाठन एवं मनन आदि है। स्वाध्याय के पाँच भेद हैं
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1. वाचना : सद्ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करना ।
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