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सम्यक् - तप तथा योग-मार्ग
2. पृच्छना : उत्पन्न शंकाओं के निरसन के लिए एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वज्जनों से प्रश्नोत्तर एवं वार्तालाप करना ।
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3. अनुप्रेक्षा : ': ज्ञान की स्मृति को बनाए रखने के लिए उसका चिन्तन करना एवं उस चिन्तन के द्वारा अर्जित ज्ञान को विशाल करना अनुप्रेक्षा है ।
4. आम्नाय (परावर्तन) : आम्नाय या परावर्तन का अर्थ दोहराना है। अर्जित ज्ञान स्थायित्व के लिए यह आवश्यक है।
5. धर्मकथा : धार्मिक-उपदेश करना धर्मकथा है।
5. व्युत्सर्ग- व्युत्सर्ग का अर्थ त्यागना या छोड़ना है । व्युत्सर्ग के आभ्यन्तर और बाह्य-दो भेद हैं । बाह्य- व्युत्सर्ग के चार भेद हैं
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1. कायोत्सर्ग : कुछ समय के लिए शरीर से ममत्व को हटा लेना ।
2. गण - व्युत्सर्ग : साधना के निमित्त सामूहिक- जीवन को छोड़कर एकांत में अकेले साधना करना ।
3. उपधि-व्युत्सर्ग : वस्त्र, पात्र आदि मुनि - जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं त्याग करना या उनमें कमी करना ।
4. भक्तपान- व्युत्सर्ग : भोजन का परित्याग । यह अनशन का ही रूप है। आभ्यन्तर - व्युत्सर्ग तीन प्रकार का है
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1. कषाय- व्युत्सर्ग : क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार कषार्यो का परित्याग करना ।
2. गण - व्युत्सर्ग : साधना के निमित्त सामूहिक जीवन को छोड़कर एकांत में अकेले साधना करना ।
3. उपधि - व्युत्सर्ग: वस्त्र, पात्र आदि मुनि - जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का त्याग करना या उनमें कमी करना।
4. भक्तपान- - व्युत्सर्ग : भोजन का परित्याग । यह अनशन का ही रूप है। आभ्यन्तर - व्युत्सर्ग तीन प्रकार का है
1. कषाय - व्युत्सर्ग: क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार कषायों का परित्याग
करना ।
2. संसार - व्युत्सर्ग: प्राणीमात्र के प्रति राग-द्वेष की प्रवृत्तियों को छोड़कर सबके प्रति समत्वभाव रखना।
3. कर्म - व्युत्सर्ग : आत्मा की मलिनता मन, वचन और शरीर की विविध प्रवृत्तियों जन्म देती है । इस मलिनता के परित्याग के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक - प्रवृत्तियों का निरोध करना ।
6. ध्यान - चित्त की अवस्थाओं का किसी विषय पर केन्द्रित होना ध्यान है।
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