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सम्यक् - तप तथा योग-मार्ग
स्वपीड़न या आत्म-निर्यातन को स्वीकार करते हैं। यदि चित्तवृत्ति या वासनाओं के निरोध के लिए आत्म-निर्यातन आवश्यक हो, तो इसे स्वीकार करना होगा।
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भारतीय आचार-परम्पराओं एवं विशेषकर जैन आचार-परम्परा में तप के साथ शारीरिक कष्ट सहने या आत्म-निर्यातन का जो अध्याय जुड़ा है, उसके पीछे भी कुछ तर्कों तो है ही । देह-दण्डन की प्रणाली के पीछे निम्नलिखिर्क दिए जा सकते हैं 1. सामान्य नियम है कि सुख की उपलब्धि के निमित्त कुछ न कुछ दुःख तो उठाना ही होता है, फिर आत्म-सुखोपलब्धि के लिए कोई कष्ट न उठाना पड़े, यह कैसे सम्भव हो सकता है ?
2. तप स्वयं को स्वेच्छापूर्वक कष्टप्रद स्थिति में डालकर अपने वैचारिक-समत्व का परीक्षण करना एवं अभ्यास करना है । 'सुख दुःखे समं कृत्वा' कहना सहज हो सकता है, लेकिन ठोस अभ्यास के बिना यह आध्यात्मिक जीवन का अंग नहीं बन सकता और यदि वैयक्तिक - जीवन में ऐसे सहज अवसर उपलब्ध नहीं होते हैं, तो स्वयं को कष्टप्रद स्थिति में डालकर अपने वैचारिक-समत्व का अभ्यास या परीक्षण करना होगा।
3. यह कहना सहज है कि 'मैं चैतन्य हूँ, देह जड़ है,' लेकिन शरीर और आत्मा के बीच, जड़ और चेतन के बीच, पुरुष और प्रकृति के बीच, सत् ब्रह्म और मिथ्या जगत् के
जस अनुभवात्मक भेद - विज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है, उसकी सच्ची कसौटी तो यही आत्म-निर्यातन की प्रक्रिया है । देह - दण्डन या काय - क्लेश वह अग्निपरीक्षा है, जिसमें व्यक्ति अपने भेदज्ञान की निष्ठा का सच्चा परीक्षण कर सकता है।
उपर्युक्त आधार पर हमने जिस देह - दण्डन या आत्म-निर्यातनरूप तपस्या का समर्थन किया है, वह ज्ञान - समन्वित तप है । जिस तप में समत्व की साधना नहीं, भेदविज्ञान का ज्ञान नहीं, ऐसा देह - दण्डनरूप तप जैन-साधना को बिलकुल मान्य नहीं है । भगवान् पार्श्वनाथ और तापस कमठ के बीच तप का यही स्वरूप तो विवाद का विषय था और जिसमें पार्श्वनाथ ने अज्ञानजनित देह-दण्डन की प्रणाली की निन्दा की थी । स्वाध्याय तप का ज्ञानात्मक स्वरूप है। भारतीय ऋषियों ने स्वाध्याय को तप के रूप में स्वीकार कर तप के ज्ञान समन्वित स्वरूप पर ही जोर दिया है। गीताकार ज्ञान और तप को साथ-साथ देखता है। 54 भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर ने अज्ञानयुक्त तप की निन्दा समान रूप से की है। भगवान् महावीर कहते हैं कि जो अज्ञानीजन मास-मास की तपस्या करते हैं, उसकी समाप्ति पर केवल कुशाग्र जितना अन्न ग्रहण करते हैं, वे ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर
धर्म का आचरण नहीं करते ।” यही बात इन्हीं शब्दों में बुद्ध ने भी कही है। 56 दोनों कथनों में शब्द - साम्य विशेष द्रष्टव्य है । इस प्रकार, जैन, बौद्ध और गीता के आचार- -दर्शन अज्ञानयुक्त तप को हेय समझते हैं।
देह - दण्डन को यदि कुछ ढीले अर्थ में लिया जाए, तो उसकी व्यावहारिक
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