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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
किया जा सकता है। महानारायणोपनिषद् में तो यहाँ तक कहा है कि अनशन से बढ़कर कोई तप नहीं है । यद्यपि गीता में अनशन (उपवास) की अपेक्षा ऊनोदरी-तप को ही अधिक महत्व दिया गया है। गीता यहाँ पर मध्यममार्गअपनाती है। गीताकार कहता है, योग नअधिक खाने वाले लोगों के लिए सम्भव है, न बिलकुल ही नखानेवाले के लिए सम्भव है। युक्ताहारविहार वाला ही योग की साधना सरलतापूर्वक कर सकता है।
महर्षि पतंजलि ने तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्रणिधान-इन तीनों को क्रिया-योग कहा है।
बौद्ध-साधना में तप का वर्गीकरण-बौद्ध-साहित्य में तप का कोई समुचित वर्गीकरण देखने में नहीं आया। मज्झिमनिकाय' के कन्दरकसुत्त में एक वर्गीकरण है, जिसमें गीता के समान तप की श्रेष्ठता एवं निकृष्टता पर विचार किया गया है। वहाँ बुद्ध कहते हैं कि चार प्रकार के मनुष्य होते हैं-(1) एक वे, जो आत्मन्तप हैं, परन्तु परन्तप नहीं हैं। इस वर्ग के अन्दर कठोर तपश्चर्या करने वाले तपस्वीगण आते हैं, जो स्वयं को कष्ट देते हैं, लेकिन दूसरे को नहीं। (2) दूसरे वे, जो परन्तप हैं,आत्मन्तप नहीं। इस वर्ग में बधिक तथा पशुबलि देने वाले आते हैं, जोदूसरो को ही कष्ट देते हैं। (3) तीसरे वे, जो आत्मन्तप भी हैं और परन्तप भी, अर्थात् वे लोग जो स्वयं भी कष्ट उठाते हैं और दूसरों को भी कष्ट देते हैं, जैसे-तपश्चर्या सहित यज्ञयाग करने वाले। (4) चौथेवे, जो आत्मन्तप भी नहीं हैं और परन्तप भी नहीं हैं, अर्थात् वे लोग, जो न तो स्वयं को कष्ट देते हैं और न औरों को ही कष्ट देते हैं। बुद्ध भी गीता के समान यह कहते हैं कि जिस तप में स्वयं को भी कष्ट दिया जाता है और दूसरे को भी कष्ट दिया जाता है, वह निकृष्ट है । गीता ऐसे तप को तामस कहती है।
बुद्ध अपने श्रावकों को चौथे प्रकार के तपके सम्बन्ध में उपदेश देते हैं और मध्यममार्ग के सिद्धान्त के आधार पर ऐसे ही तप को श्रेष्ठ बताते हैं, जिनमें न तो स्वपीड़न है. न पर-पीड़न।
जैन-विचारणा उपर्युक्त वर्गीकरण में पहले और चौथे को स्वीकार करती है और कहती है कि यदि स्वयं के कष्ट उठाने से दूसरों का हित होता है और हमारी मानसिक-शुद्धि होती है, तो पहलाही वर्ग सर्वश्रेष्ठ है और चौथा वर्ग मध्यममार्ग है। हाँ, यह अवश्य है कि वह दूसरे और तीसरे वर्ग के लोगों को किसी रूप में नैतिक या तपस्वी स्वीकार नहीं करती।
___ यदि हम जैन-परम्परा और गीता में वर्णित तप के विभिन्न प्रभेदों पर विचार करके देखें, तो हमें उनमें से अधिकांश बौद्ध-परम्परा में मान्य प्रतीत होते हैं
(1) बौद्ध-भिक्षुओं के लिए अति भोजन वर्जित है, साथ ही एक समय भोजन करने का आदेश है, जो जैन-विचारणा के ऊनोदरी-तप से मिलता है। गीता में भी योगसाधना के लिए अति भोजन वर्जित है। (2) बौद्ध-भिक्षुओं के लिए रसासक्ति का निषेध है। (3) बौद्ध-साधना में भी विभिन्न सुखासनों की साधना का विधान मिलता है। यद्यपि
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