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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
संशयशीलता साधना की दृष्टि से विघातक-तत्त्व है। जिस साधक की मनःस्थिति संशय के हिंडोले में झूल रही हो, वह इस संसार में झूलता रहता है (परिभ्रमण करता रहता है) और अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता । साधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साध्य, साधक और साधना-पथ, तीनों पर अविचल श्रद्धा होनी चाहिए। साधक में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी संदेह उत्पन्न होता है, वह साधना से च्युत हो जाता है। यही कारण है कि जैन-साधना निश्शंकताको आवश्यक मानती है। निश्शंकता की इस धारणा को प्रज्ञा और तर्क की विरोधी नहीं मानना चाहिए। संशय ज्ञान के विकास में साधन हो सकता है, लेकिन उसे साध्य मान लेना, अथवा संशय में ही रुक जाना साधक के लिए उपयुक्त नहीं है। मूलाचार में निश्शंकता को निर्भयता माना गया है। नैतिकता के लिए पूर्ण निर्भय जीवन आवश्यक है। भय पर स्थित नैतिकता सच्ची नैतिकता नहीं है।
(2) निष्कांक्षता-स्वकीय आनन्दमय परमात्मा-स्वरूप में निष्ठावान् रहना और किसी भी पर-भाव की आकांक्षा या इच्छा नहीं करना निष्कांक्षता है। साधनात्मक-जीवन में भौतिक-वैभव, ऐहिक तथा पारलौकिक-सुखको लक्ष्य बनाना ही जैन-दर्शन के अनुसार 'कांक्षा' है। किसी भी लौकिक और पारलौकिक-कामना को लेकर साधनात्मकजीवन में प्रविष्ट होना जैन-विचारणा को मान्य नहीं है। वह ऐसी साधना को वास्तविक साधना नहीं कहती है, क्योंकि वह आत्म-केन्द्रित नहीं है। भौतिक-सुखों और उपलब्धियों के पीछे भागनेवाला साधक चमत्कार और प्रलोभन के पीछे किसी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है। इस प्रकार, जैन साधना में यह माना गया है कि साधक को साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के लिए निष्कांक्षित अथवा निष्कामभावसे युक्त होना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में निष्कांक्षता का अर्थ- 'एकान्तिक-मान्यताओं से दूर रहना' किया है। इस आधार पर अनाग्रहयुक्त दृष्टिकोण सम्यक्त्व के लिए आवश्यक है।
(3) निर्विचिकित्सा-विचिकित्सा के दो अर्थ हैं -
(अ) मैं जो धर्म-क्रिया या साधना कर रहा हूँ, इसका फल मुझे मिलेगा या नहीं, मेरी यह साधना व्यर्थ तो नहीं चली जाएगी, ऐसी आशंका रखना विचिकित्सा' कहलाती है। इस प्रकार, साधना अथवा नैतिक-क्रिया के फल के प्रतिशंकाकुल बने रहना विचिकित्सा है।शंकालु हृदयसाधक में स्थिरता और धैर्य का अभाव होता है और उसकी साधना सफल नहीं हो पाती, अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैतिक आचरण का प्रारम्भ करे कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि नैतिक आचरण किया जाएगा, तो निश्चित रूप से उसका फल होगाही। इस प्रकार, क्रिया के फल के प्रति सन्देह न होना ही निर्विचिकित्सा है।
(ब) कुछ जैनाचार्यों के अनुसार, तपस्वी एवं संयमपरायण मुनियों के दुर्बल, जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा को देखकर मन में ग्लानि लाना विचिकित्सा है, अतः साधक
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