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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
चित्त में उत्पन्न होती है, तो वह चित्त को प्रीति और प्रमोद से भर देती है और चित्तमलों को नष्ट कर देती है। बौद्ध परम्परा में श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं, वरन् एक बुद्धि--सम्मत अनुभव है। यह विश्वास करना नहीं, वरनू साक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न तत्त्व-निष्ठा है। बुद्ध एक ओर यह मानते हैं कि धर्म का ग्रहण स्वयं के द्वारा जानकर ही करना चाहिए। समग्र कालामसुत्त में उन्होंने इसे सविस्तार स्पष्ट किया है। दूसरी ओर, वे यह भी आवश्यक समझते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति निष्ठावान् रहे । बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित करके चलते हैं । मज्झिमनिकाय में बुद्ध यह स्पष्ट कर देते हैं कि समीक्षा के द्वारा ही उचित प्रतीत होने पर धर्म को ग्रहण करना चाहिए ।" विवेक और समीक्षा सदैव ही बुद्ध को स्वीकृत रहे हैं । बुद्ध कहते थे कि भिक्षुओं ! क्या तुम शास्ता के गौरव से तो 'हाँ' नहीं कह रहे हो ? भिक्षुओं ! जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है, क्या उसी को तुम कह रहे हो ?47 इस प्रकार, बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित करते हैं। सामान्यतया, बौद्ध दर्शन में श्रद्धा को प्रथम और प्रज्ञा को अन्तिम स्थान दिया गया है। साधनामार्ग की दृष्टि से श्रद्धा पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् उत्पन्न होती है। श्रद्धा के कारण ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण और वीर्यारम्भ होता है। नैतिक-जीवन के लिए श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है, इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध परम्परा के सौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ में मिलता है। उसमें बुद्ध नन्द के प्रति कहते हैं कि पृथ्वी के भीतर जल है, यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है, तब प्रयोजन होने पर पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है । भूमि
अन्न की उत्पत्ति होती है, यदि यह श्रद्धा कृषक में न हो, तो वह भूमि में बीज ही नहीं डालेगा । धर्म की उत्पत्ति में यही श्रद्धा उत्तम कारण है। जब तक मनुष्य तत्व को देख या सुन नहीं लेता, तब तक उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं होती । साधना के क्षेत्र में प्रथम अवस्था में श्रद्धा एक परिकल्पना के रुप में ग्रहण होती है और वही अन्त में तत्त्व - साक्षात्कार बन जाती है । बुद्ध ने श्रद्धा और प्रज्ञा, अथवा दूसरे शब्दों में, जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्ष में समन्वय किया है। यह ऐसा समन्वय है, जिसमें न तो श्रद्धा अन्धश्रद्धा बनती है और न प्रज्ञा केवल द्धा तर्कात्मक ज्ञान बन कर रह जाती है।
जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन के शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा आदि दोष हैं, उसी प्रकार बौद्ध - परम्परा में भी पाँच नीवरण माने गए हैं, वे इस प्रकार हैं - 1. कामच्छन्द (कामभोगों की चाह ), 2. अव्यापाद (अविहिंसा), 3. स्त्यानगृद्ध (मानसिक और चैतसिक आलस्य), 4. औद्धत्य - कौकृत्य ( चित्त की चंचलता) और 5. विचिकित्सा(शंका) 148 तुलनात्मक दृष्टि से देखें, तो बौद्ध - परम्परा का कामच्छन्द जैन- परम्परा के कांक्षा नामक अतिचार के समान है। इसी प्रकार, विचिकित्सा भी दोनों दर्शनों में स्वीकृत है। जैन - परम्परा में संशय और चिकित्सा- दोनों अलग-अलग माने गए हैं, लेकिन बौद्धपरम्परा दोनों का अन्तरभाव एक में ही कर देती है। इस प्रकार, कुछ सामान्य मतभेदों को छोड़कर जैन और बौद्ध - दृष्टिकोण एक-दूसरे के निकट ही आते हैं।
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