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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
प्रवाह सराग, सकाम या फलाकांक्षा से युक्त होता है और यही कर्मों के प्रति रही हुई फलाकांक्षा बन्धन का कारण होने से पुरुषार्थ को अशुद्ध बना देती है, जबकि सम्यक्दर्शन की उपस्थिति से विचार-प्रवाह वीतरागता, निष्कामता और अनासक्ति की ओर बढ़ता है, फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है, अतः सम्यग्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ परिशुद्ध होता है।
बौद्ध-दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान-बौद्ध-दर्शन में सम्यग्दर्शनका क्या स्थान है, यह बुद्ध के निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि
भिक्षुओं! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता, जिससे अनुत्पन्न अकुशलधर्म उत्पन्न होते हों तथा उत्पन्न अकुशल-धर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं! मिथ्या दृष्टि।
भिक्षुओं! मिथ्या-दृष्टि वाले में अनुत्पन्न अकुशल-धर्म पैदा हो जाते हैं। उत्पन्न अकुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं। .
भिक्षुओं! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता, जिससे अनुत्पन्न कुशलधर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं! सम्यक् दृष्टि।
भिक्षुओं! सम्यक्-दृष्टिवाले में अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हो जाते हैं। उत्पन्न कुशल-धर्म वृद्धि को, विलपुता को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार, बुद्ध सम्यक् दृष्टि को नैतिक-जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं । उनकी दृष्टि में मिथ्या दृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम्यक् दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है।" बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि बौद्ध-दर्शन में सम्यक्-दृष्टि का कितना महत्वपूर्ण स्थान है।
वैदिक-परम्पराएवं गीतामें सम्यक्-दर्शन (श्रद्धा) कास्थान-वैदिक-परम्परा में भी सम्यक्-दर्शन को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति में कहा गया है कि सम्यक्दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति को कर्म का बंधन नहीं होता है, लेकिन सम्यक् दर्शन से विहीन व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है।18
गीता में यद्यपिसम्यक्-दर्शनशब्दका अभाव है, तथापिसम्यक् दर्शन को श्रद्धापरक अर्थ में लेने पर गीता में उसका महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध हो जाता है। श्रद्धा गीता के आचारदर्शन के केन्द्रीय तत्त्वों में से एक है। श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' कहकर गीता ने उसका महत्व स्पष्ट कर दिया है। गीता यह भी स्वीकार करती है कि व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है, उसका जीवन के प्रति जैसा-जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही वह बन जाता है। 19 गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर सम्यक्-दर्शन या श्रद्धा के महत्व को स्पष्ट कर दिया है कि यदि दुराचारी व्यक्ति भी मुझे भजता है, अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है, तो उसे साधुही समझो, क्योंकि वह शीघ्र ही धर्मात्मा होकर चिर शांति को प्राप्त हो जाता है।20 गीता का यह कथन आचारांग के उस कथन से कि सम्यक्-दर्शी कोई पाप नहीं करता, काफी अधिक माग रखता है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में भी सम्यक्दर्शन के महत्व को स्पष्ट करते हुए
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