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सम्यक द
आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन करता है और वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। दूसरा वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। दोनों दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ ही कहा जाएगा, यद्यपि दोनों की उपलब्धिविधि में अन्तर है । एक ने उसे तत्त्वसाक्षात्कार या स्वतः की अनुभूति में पाया, तो दूसरे ने श्रद्धा के माध्यम से ।
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वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त की जा सकती है, वेदो हैं- या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व - साक्षात्कार करे, अथवा उन ऋषियों के कथनों पर श्रद्धा करे, जिन्होंने तत्त्व - साक्षात्कार किया है । तत्त्व- श्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विकल्प है, जब तक साधक तत्त्वसाक्षात्कार नहीं कर लेता। अन्तिम स्थिति तो तत्त्वसाक्षात्कार की ही है। पं. सुखलालजी लिखते हैं, तत्त्वश्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो, तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्वसाक्षात्कार है । तत्त्व- श्रद्धा तो तत्त्व - साक्षात्कार का एक सोपान - मात्र है, वह सोपान दृढ़ हो, तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है ।"
जैन आचार - दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान- सम्यग्दर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है । नन्दिसूत्र में सम्यग्दर्शन को संघरूपी सुमेरु पर्वत की अत्यन्त सुदृढ़ और गहन भूपीठिका (आधार - शिला) कहा गया है, जिस पर ज्ञान और चारित्ररूपी उत्तम धर्म की मेखला, अर्थात् पर्वतमाला स्थिर है। 12 जैन आचार में सम्यग्दर्शन को मुक्ति का अधिकारपत्र कहा जा सकता है । उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सदाचार नहीं आता और सदाचार के अभाव
कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हुए प्राणी का निर्वाण नहीं होता। " आचारांगसूत्र में कहा है कि सम्यग्दृष्टि पापाचरण नहीं करता । 14 जैन- विचारणा के अनुसार, आचरण का सत् अथवा असत् होना कर्त्ता के दृष्टिकोण (दर्शन) पर निर्भर है, सम्यक् - दृष्टि से निष्पन्न आचरण सदैव सत् होगा और मिथ्या-दृष्टि से निष्पन्न आचरण सदैव असत् होगा। इसी आधार पर सूत्राकृतांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि व्यक्ति विद्वान् है, भाग्यवान् है और पराक्रमी भी है; लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है, तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा से होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति
ओर जाकर बधन की ओर ही ले जाएगा, क्योंकि असम्यक्दर्शी होने के कारण वह सराग- - दृष्टि वाला होगा और आसक्ति या फलाशा से निष्पन्न होने के कारण उसके सभी कार्य सकाम होंगे और सकाम होने से उसके बन्धन का कारण होगें, अतः असम्यग्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही कहा जाएगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा, लेकिन इसके विपरीत, सम्यग्दृष्टि या वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित होने से शुद्ध होंगे। इस प्रकार, जैन- विचारणा यह बताती है कि सम्यग्दर्शन के अभाव से विचार
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