Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूमिका
जैन ज्ञान-मीमांसा में श्रुतज्ञान के अंतर्गत उस समग्र वाङ्मय का समावेश किया जाता है जो आगम कहलाता है। श्रुत शब्द का एक अर्थ है - शास्त्र । वैदिक शास्त्रों को जैसे 'वेद' और बौद्ध शास्त्रों को जैसे 'पिटक' कहा जाता है, वैसे ही जैन शास्त्रों को 'आगम' कहा जाता है।
आगमों के अनुशीलन से जैन दर्शन और धर्म के मौलिक मन्तव्यों का ज्ञान हो सकता है । जैसे - जैन दर्शन ने ज्ञान और आचरण के युगपत् महत्त्व का निरूपण किया है, पर प्राथमिकता ज्ञान को दी है। उत्तराध्ययन आगम में इस विषय में बताया गया है
नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।।
अर्थात् "अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान (सम्यग् ज्ञान) नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र - गुण नहीं होते । अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। अमुक्त का निर्वाण नहीं होता।"
इसी प्रकार आगम के इस निरूपण पर भी ध्यान दें
१.
२.
पढमं नाणं, तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही ? किं वा नाहिइ छेय-पावगं ? २
" पहले ज्ञान फिर दया - इस प्रकार सब मुनि स्थित होते हैं । अज्ञानी क्या करेगा? वह क्या जानेगा-क्या श्रेय है और क्या पाप ?" आचार से पूर्व ज्ञान का महत्त्व इससे उजागर हो रहा है।
आगमों का अनुशीलन करने से अनेकानेक विषयों की जानकारी प्राप्त होती है । कुछ विषय ऐसे हैं, जिन्हें पुनः पुनः पढ़ने से साधक अभिप्रेरित होता रहता है । उसे जैसे कोई जगा देता है, उसके प्रमाद आदि को पलायन करवा देता है । उदाहरणार्थ
दुमपत्तए पंडुयए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए ।।
उत्तरज्झयणाणि, १० / १ ।
उत्तरज्झयणाणि, २८ / ३० ।
दसवे आलियं, ४ /गाथा १० ।
३.