Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसरि का जोवन ]
[ ओसवाल संवत् ७३६-७५७
श्रीसंघ के साथ यात्रा करूँ । सूरिजी ने फरमाया कदर्पि तू भाग्यशाली है । तीर्थयात्रा का लाभ कोई साधारण लाभ नहीं है पर इस पुनीत कार्य से कई भव्यों ने तीथङ्कर नाम कर्मापार्जन किया है क्योकि श्रीसंघ रत्नों की खान है इसमें मोक्षगामी जीव भी शामिल है न जाने किस जीव के इस निमित्त कारण से किस प्रकार से भला हो जाता है इत्यादि बाद में संघ अग्रेश्वरों ने भी कहा कदर्पि आपके यह विचार सुन्दर और शुभ हैं । आप खुशी से संघ निकालें श्रीसंघ आपके सहमत है । बस, फिर तो था ही क्या नागपुर के घर-घर में आनंद मंगल छागया । कारण गुरुदेव के साथ छरी पाली यात्रा का करना कौन नहीं चहाता था। सेठ कदर्पि ने संघ के लिये आमंत्रण पत्रिकायें भेज दी और सब तरह की तैयारियें करने में लग गया। कार्प जैसे विपुल सम्पत्ति का मालिक था वैसे ही बहुकुटुम्बी भी था। और दिल का भी उदार था--
सूरिजी के दिये हुये शुभ मुहूर्त में शह कदर्पि को संघपति पद अर्पण कर सूरिजी के नायकत्व में संघने प्रस्थान कर दिया। मुग्धपुर, कुच्चपुर, फलवृद्धि, मेदनीपुर खटकूप शंखपुर, हर्षपुर, आसिकापुरी और माढल्यपुर होते हुये जब संघ उपकेशपुर पहुँचा तो वहाँ के लोगों को ज्ञात हुआ कि प्राचार्य कक्कसूरीश्वरजी महाराज नागपुर से संघ के साथ पधार रहे हैं अतः संघ में उत्साह का पार नहीं रहा । संघ की ओर से नगर प्रवेश का बड़े ही समारोह के साथ महोत्सव किया । भगवान् महावीर की यात्रा कर सबने अपना अहो भाग्य समझा तत्पश्चात् पहाड़ी पर भगवान पार्श्वनाथ के मन्दिर की यात्रा और देवी सच्चायिका के दर्शन एवं श्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज के स्थंभ की यात्रा की । संघपति ने पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि अनेक शुभ कार्य किये अष्टान्हिका महोत्सव और ध्वजारोहणमें संघपति ने पुष्कल द्रव्य व्यय कर खूब ही पुन्योपार्जन किया।
वहाँ भी सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था। एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि यों तो मोक्ष मार्ग की आराधना के अनेक कारण हैं पर साधर्मी भाइयों के साथ में वात्सल्यता रखना उनकी सहायता एवं सेवा उपासना करना विशेष लाभ का कारण है शास्त्रों में भी कहा है कि "रागत्थ सव्व धम्मा, साहम्मिअवच्छलं तु एगत्थ" । बुद्धि तुलाए तुलिया, देवि अतुल्लाई भणिआई।
श्रोताओ ! इसी वात्सल्यता के कारण जो महाजन संघ लाखों की संख्या में था वह करोड़ों तक पहुँच गया है। आपने सुना होगा कि जिस समय महाराजा चेटक और कोणिक के आपस में युद्ध हुआ उस समय काशी कौशल के अट्ठारह गण राजा केवल एक साधर्मी भाई के नाते से चेटक राजा की मदद में अपने २ राज्य का बलिदान करने को तैयार होगये । इतना ही नहीं पर उन्होंने अपने २ राज बलिदान कर भी दिया था । अतः साधर्मी भाइयों की ओर सदैव बात्सल्यता रखनी चाहिये।
यात्रार्थ संघ निकलना भी एक साधर्मी वात्सल्यता ही है पूर्व जमाने में भरत सागर चक्रवर्ती व राम पाण्डव जैसे भाग्यशालियों ने संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को तीर्थों की यात्रा करवाई थी। महाराज उत्पलदेव, सम्राट सम्प्रति और राजा विक्रमादि अनेक भूपतियों ने तथा इस महाजन संघ के अनेक भाग्यशालियों ने भी सम्मेत शिखर शत्रुजय गिरनारादि तीर्थों के संघ निकाल कर अपने साधर्मी भाइयों को यात्रा करवाई थी । इसका अर्थ यह नहीं होता है कि एक धनाढ्य संघ निकाले और साधारण लोग उसमें शामिल होकर यात्रार्थ जावें । पर साधारण मनुष्य के निकाले हुये संघ में धनाढ्य लोग भी जावे और उसके दिये हुये स्वागीवात्सल्य एवं पहरामणी को वे धनाढ्य बड़ी खुशी से लेते थे और आज भी ले रहे
सरिजी का वात्सल्यता पर उपदेश ]
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