Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ७३६-७५७
पूर्वज बातें भी किया करते थे कि एक बार जननी जन्म भूमि की स्पर्शना करनी है वे नहीं कर पाये । जब ऐसा संकेत हुआ है तो अपने सब कुटुम्ब के साथ उपके शपुर की यात्रा अवश्य करनी चाहिये । शाह कर्मा ने सोचा कि उपकेशपुर भी एक तीर्थ ही है । अव्वल तो अपनी जन्म भूमि है दूसरे महावीर के दर्शन तीसरे अपनी कुलदेवी सच्चायिका । अतः संघ के साथ ही यात्रा करनी चाहिये । जब काम बनने को होता है तब निमित्त भी सब अनुकूल मिल जाता है । इधर से पूर्व में बिहार करने वाले उपकेशगच्छीय वाचनाचार्य देवप्रभ अपने शिष्य परिवार से आभापुरी पधार गये । शाह कर्मा ने अपने विचार वाचकजी के सामने रक्खे । वाचकजी ने तुरंत ही आपके सम्मत होकर उपदेश दिया कि कर्मा समय का विश्वास नहीं है धर्मका कार्य शीघ्र ही कर लेना चाहिये ।
कर्मा ने संघ की तैयारिये करनी शुरू करदी और अंग वंग मगध कलिंग वगैरह प्रान्तों में आमंत्रण पत्रिकायें भिजवादीं। कारण उस समय पूर्व देश में मरुधर से आये हुये उपकेशवंशी लोगों की काफी संख्या थी और उपकेशपुर का संघ निकालने का यह पहला ही अवसर था अतः ऐसा सुअवसर हाथों से कौन जाने देने वाला था । ठीक शुभ मुहूर्त में कर्मा शाह को संघपति पद प्रदान कर दिया और वाचनाचार्य देवप्रभ के नायकत्व में संघ ने प्रयाण कर दिया। रास्ते में जितने तीर्थ आये सबकी यात्रा की ध्वजमहोत्सव वगैरह शुभ कार्य करते हुए संघ उपकेशपुर पहुँचा । शासनाधीश चरम तीर्थाङ्कर भगवान महावीर की यात्रा का लाभ तो मिला ही पर विशेष में उपकेशगच्छाधीश धर्मप्राण प्राचार्य यक्षदेवसूरि भी अपने शिष्य मण्डल के साथ उपकेशपुर विराजते थे उनके दर्शन का भी संघ को लाभ अनायास मिल गया जिसकी संघ को बड़ी भारी खुशी थी तत्पश्चात् देवी सच्चायिका के दर्शन किये । इधर वाचनाचार्यजी ने भी श्राकर अपने पूज्य आचार्य देव को बंदना की और चिरकाल से मिलने से साधुओं के समागम से बड़ा भारी आनन्द हुआ।
संघ ने स्थावर तीर्थ के साथ जंगम तीर्थ की यात्रा की तो उपदेशश्रवण की भावना होना तो स्वभाविक ही था। सूरिजी ने दूसरे दिन व्याख्यान दिया तो नगर के अलावा संघपति कर्मा तथा संघ के सब लोग व्याख्यान में उपस्थित हुये। सूरिजी ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिये प्रवृति और निर्वृति एवं दो मार्ग हैं। प्रवृति कारण है तब निवृति कार्य है। कार्य को प्रगट करने के लिये कारण मुख्य साधन है । जैसे एक मनुष्य को मकान पर चढ़ना है तो सीढ़ी के आलम्बन की जरूरत है। बिना सीढ़ी मकान के ऊपर पहुँच नहीं सकता है पर केवल सीढ़ी को ही पाड़ के बैठ जाना एवं संतोष करना ठीक नहीं हैं, पर आगे बढ़कर मकान पर जल्दी पहुँचजाने की कोशिश करना चाहिये । कारण, विलम्ब करने में कई अन्तरायें उपस्थित होजाती हैं। इसी प्रकार प्रवृति मार्ग में प्रवृति करता हुआ निर्वृति प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिये जैसे पूजा, प्रभावना, स्वामी वात्सल्य, मन्दिर मूर्ति बनाना, तीर्थ यात्रा के लिये संघ निकालना। यह सब प्रवृति मार्ग है इसका उद्देश्य निर्वृति प्राप्त करने का है जैसे सीढ़ी पर रहा हुश्रा मनुष्य मकान पर चढ़ता है इसी कार मनुष्य को प्रवृति से ऊँचा चढ़ निर्वृति मार्ग को स्वीकार कर उसकी ही आराधना करनी चाहिये । जब तक आरम्भ और परिग्रह को न छोड़ा जाय तब तक निर्वृति श्रा नहीं सकती है अतः निर्वृति के लिये सर्वोत्कृष्ट मार्ग तीर्थ कर कथित भगवती जैनदीक्षा है इसकी आराधना किये बिना मोक्ष हो नहीं सकती है। क्योंकि गृहस्थ ज्यादा से ज्यादा पांचवें गुणस्थान का स्पर्श कर सकता है तब मोक्ष है चौदहवें गुणस्थान के अन्त में ! श्रावकों ! अभी आपको बहुत दूर जाना है। आभापुरी से उपकेशपुर का संघ ]
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