Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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[ ३६ ] द्वारा मारे हुए बकरे आदि का मांस खाने में कुछ हर्ज नहीं" ऐसे सुभीते का श्रहिंसा तत्व जो बोद्धोंने निकाला था वह जैनियों को सर्वथा स्वीकार नहीं ।
( १९, बौद्धधर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। इस धर्म का परिचय सब को हो गया है । परन्तु जैनधर्म के विषय में वैसा अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है । बौद्धधर्म चीन, टि, जापानादि देशों में प्रचलित होने और विशेष कर उन देशों में उसे राज्याश्रय मिलने से उस धर्म के शास्त्रों का प्रचार अति शीघ्र हुआ, परन्तु जैनधर्म जिन लोगों में है ये प्रायः व्यापार व्यवहार में लगे रहने से धर्म ग्रन्थ प्रकाशन सरीखे कृत्य की तरफ लक्ष देने के लिए श्रवकाश नहीं पाते इस कारण अगणित जैन प्रन्थ अप्रकाशित पड़े हुए हैं ।
(२०) यूरोपियन ग्रन्थकारों का लक्ष भी देता । यह भी इस धर्म के विषय में उन लोगों के (२१) जैनधर्म के काल निर्णय सम्बन्ध में दूसरी ओर के प्रमाण भी आने लगें हैं कोलब्रुक साहिब सरीखे पण्डितों ने भी जैनधर्म का प्राचीनत्व स्वीकार किया है। इतना ही नहीं किन्तु 'बौद्धधर्म जैनधर्म से निकला हुआ होना चाहिए' ऐसा विधान किया है । मिस्टर एडवर्ड थाम्स का भी ऐसा ही मत है । उपरोक्त पंडित ने 'जैनधर्म' या "अशोक की पूर्व श्रद्धा" नामक प्रन्थ में इस विषय के जितने प्रमाण दिए हैं वे सब यदि यहाँ पर दिए जाय तो बहुत विस्तार हो जायगा ।
(२२) चन्द्रगुप्त ( अशोक जिस का पोता था ) स्वतः जैन था इस बात को वंशावली का दृढ़ धार है । राजा चन्द्रगुप्त श्रमण श्रर्थात् जैनगुरु से उपदेश लेता था ऐसी मेगस्थिीनीज प्रीक इतिहासकार
की भी साक्षी है।
श्रद्यापि इस धर्म की ओर इतना खिंचा हुबा नहीं दिखाई ज्ञान का एक कारण है ।
अबुल फजल नामक फारसी प्रन्थकार ने " अशोक ने काश्मीर में जैनधर्म का प्रचार किया " ऐसा है। राजतरंगिणी नामक काश्मीर के संस्कृत इतिहास का भी इस विज्ञान का आधार है ।
कहा
(२३) उपरोक्त विवेचन से ऐसा मालुम पड़ता है कि इस धर्म में सुझों को आदरणीय जचने योग्य अनेक बातें हैं । सामान्य लोगों को भी जैनियों से अधिक शिक्षा लेने योग्य है । जैन लोगों का भाविकपन, श्रद्धा व औदार्य प्रशंसनीय है ।
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(२४) जैनियों की एक समय हिन्दुस्तान में बहुत उन्नातावस्था थी। धर्म, नीति, राजकार्य घुरन्धरता, वाङ्मय ( शास्त्र ज्ञान व शास्त्र भंडार ) समाजोन्नति आदि बातों में उनका समाज इतर जनों से बहुत आगे था । संसार में अब क्या हो रहा है इस और हमारे जैन बन्धु लक्ष दे कर चलेंगे तो वह महत्वद पुनः प्राम्र कर लेने में उन्हें अधिक श्रम नहीं पड़ेगा ।
(२५) जैन व श्रमेरीकन लोगों से संगठन कर श्राने के लिए बम्बई के प्रसिद्ध जैन गृहस्थ परलोक वासी मि० वीरचन्द गांधी अमेरीका को गये थे। वहां उन्होंने जैनधर्म विषयक परिचय कराने का क्रम भी स्थित किया था ।
अमेरीका में गांधी फिलॉसोफिकल सोसायटी, अर्थात् जैन तत्वज्ञान का अध्ययन व प्रचार करने के लिए जो समाज स्थापित हुई वह उन्हीं के परिश्रम का फल है। दुदैव से मि० वीरचन्द गांधी का अकाल मृत्यु होने से उक्त आरंभ किया हुआ कार्य पूर्ण रह गया है, इत्यादि ।
(२६) पेरीस ( फ्रान्स की राजधानी ) के डॉक्टर ए. गिरनारने अपने पत्र ता. ३-१३-११ में Jain Educ] लिखा है कि मनुष्यों की तरक्षी के लिए जैनधर्म का चरित्र बहुत लाभकारी है यह धर्म बहुत ही असलो,
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