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श्रीम प्रकार
पूजा ॥ २ ॥
बासक्षेप पूजायां दृष्टान्त माह-- गाथा - जह जयसूरनिवेणं, जायासहिएणसईय जम्मंमि।
संपत्ती निव्वाणं, जिणंद वरगन्धपूयाओ॥५॥ संस्कृतच्छायो = यथा जयशूरनपेण, जायासहितेन तृतीयजन्मनि,
सम्माप्नो निर्वाणं, जिनेन्द्रवरगन्धपूजातः॥५॥ अर्थ = जैसे विद्याधरपति राजा जयशूर ने अपनी स्त्री सुखमती के साथ इस भव से तीसरे भव में । श्री जिनराज की वासक्षेप पूजा के प्रभाव से मुक्ति पद पाया ॥५॥
अथ जयशरकधा। इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में प्रधान चेताय नामक पर्वत के ऊपर दक्षिण दिशा की पंक्ति में गजपुर, मामक नगर था। वहां विद्याधरों का स्वामी जयशूर नामक राजा पुत्रवत् प्रजापालन करता हुआ राज्यकरता था। A उसकी पटरानी सुखमती थी, वह उसके साथ मुख से राज्य सुख भोगता था-एक बार उस रानी मुखमती के , उदर में देवलोक से च्युत होकर, उत्तम स्वप्नों से सूचित, कोई सम्यक् दृष्टि देवता गर्भ रूप उत्पन्न हुआ । उस
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