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इस प्रकार यहुत वर्ष व्यतीत हुए । एक दिन वह तापसी रानीके पास आई और पूछने लगी-हे पुत्री! तेरा मनोरथ सिद्ध हुआ? ऐसा सुनकर रानी ने तापसी का आदर किया और हाथ जोड़कर विनती की, हे भगवती! जो बात संसार में प्राप्त नहीं थी वह आपके चरण कमलकी कृपा से तत्काल होगई, परन्तु मेरा मन अभी डोलायमान हो रहा है, हृदयमें निश्चय नहीं होता है। मैं यह बात प्रत्यक्ष देखना चाहतीहूँ कि मेरे जीते राजा जीवे । और मरने पर मरे। तब राजा का स्नेह सच्चा जाना जाय, अन्यथा नहीं। यह सुनकर तपस्विनी बोली हे भद्र ! यदि वैसा ही कौतुक देखने की तेरी इच्छा है तो यह जड़ी नासिका के अगाड़ी लगाकर गंध सूघना, जिससे । ५ तू मृततुल्य मूछित हो जावेगी। राजादिक तुझको प्राण रहित जानेंगे,तब मैं आकर तुझको दूसरी जड़ी सुघा
कर जीवित कर दूगी। पर देह का रूप नहीं बदलेगा । इस बात का भय मन में मत समझना, इस प्रकार समझा कर वह तापसी अपने स्थान को गई।
पीछेसे रानी ने जड़ी को नासिका से लगाया, और गन्ध ग्रहण किया इतने में राजाके पास सोती हुई । तत्काल प्राण रहित हो गई। राजा उसको चेष्टा रहित देखकर रोने लगा। अन्तःपुर और नगर के लोग इकट्ठ । Jहए। राजभवन में 'देची मरी देवी मरी, देवी मरो'ऐसी आवाज होने लगी। राजा की आज्ञा से कई मंत्रवादी
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