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श्री घट प्रकार
पूजा ॥ ६२ ॥
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गर्भ अवस्था में माता को जन पूजा का दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं स्वर्ण कलश से श्री जिनराज को स्नान कराऊ, उसकी ऐसी इच्छा राजा ने पूर्ण की। शुभ दिवस में उसका जन्म उत्सव हुआ, सब परिवार, कुटुम्ब को दशवें दिन बुलाया, चन्द्रमा सूर्यादि की पूजा कराई गई, कई मित्र सज्जनों को अन्न, वस्त्र, आभूषणों से सत्कार करके उसका नाम कु भश्री स्थापन किया । वह कन्या कल्पवल्ली के समान प्रतिदिन माता पिता के आनन्द के साथ बढ़ने लगी। जब वह राजकुमारी चन्द्रमा की शुक्लपक्ष की कला के समान बढ़ती हुई पांच वर्ष की हुई तथ चौसठ कला पढ़ने लगी । बाल्यावस्था छोड़ कर रमणीय यौवनावस्था को प्राप्त हुई। पिता के घर में रहती हुई देवलोकवत् इष्ट परम सुख भोगती थी और माता पिता को अत्यन्त वल्लभ थी ।
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इसी अवसर में बहुत साधुओं के परिवार सहित चार ज्ञान को धारण करने वाले मुनिराज उस नगर के पास उद्यान में आकर विराजमान हुए। उन आचार्य का नाम विजयसूरि था। राजा अपने नगर के पास मुनि को आये हुए जानकर परिवार सहित चतुरंगिणी सेना साथ ले वन्दना करने को वहां आया । अपने साथमें रानी और पुत्री कुभश्रीको भी लाया था, नगरके नर नारियोंके झुण्डके झुण्ड भी साथ थे। दूर से ही मुनिराज को देख कर हाथी से उतर पड़ा और राजचिन्ह छोड़ कर रानी और पुत्री सहित तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दना करने
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