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जल पूजा करने लगी, दोनों संध्याओं के समय पिता पुत्री स्वर्ण कलश जलसे भरा कर श्रीधीत राग भगवान् को L मजन ( स्नान ) करा कर राग, भक्ति प्रगट करते हैं।
वह मुनिराज भी भव्य जीवों को प्रतियोष देते हुए संसार के दःख से छुड़ाते हए, स्वयं आत्म विचार करते हुए जीवों को संसार से पार उतारते हुए, पृथ्वी मण्डल के बीच जगह २ विहार करने लगे । स्थान २ पर अपना महात्म कट करते हुए, गांव में एक रात्रि और नगर में तीन रात्रि निवास करते हुए विचरने लगे
वह दुर्गता नारी शुद्ध मन से उपदेश सुनकर वैराग रंग सेरंगी हुई एक साध्वी के पास पश्च महाप्रतअंगी-50, कार कर निरति चार चारित्र पालती हुई ग्राम, नगर और पृथ्वी मण्डल में विचरने लगी। एवं धर्म ध्यान करते।। हुए उसका समय व्यतीत होता था।
राजा की पुत्री कुभश्री शुद्ध परिणाम से घायु का पालन कर यहां से मरकर ईशान देवलोक में देवता उत्पन्न हुई, वहां देव सुख भोगने लगी, कई गीत, नाटक, कला और विविध प्रकार विलास करती हुई समय बिताती! थी। वहां से च्युत होकर मनुष्य भव में मनुष्यावतार लिया, वहां भी राज्य सुख ऋद्धि भोग कर देवता हुई। फिर मनुष्य भव पाकर वैराग से दीक्षा लेकर केवल ज्ञान प्राप्त कर पांचवे भव में सिद्धपद को प्राप्त हुई।
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