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ShaMahavir Jain ArachanaKendra
Acharya Sh Kailasagasar Gyanmandir
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ज्ञान सफल है अन्यथा नहीं। ऐसा वैराग्य युक्त उपदेश, अमृतधारावत् सुखकारी, गुरुवचन सुन जयकुमार भी इस प्रकार कहने लगा हे भगवन् ! धिकार है इस संसार को जो मेरी पूर्व भव की बड़ी बहिन मर कर स्त्री हुई। इस बात से में भी विरक्त हुआ हूँ, परन्तु दीक्षा पालन करने की मेरी शक्ति नहीं है, इसलिये मैं क्या करूं? हे स्वामिन् ! मुझको भी उचित धर्म का उपदेश दो । तव गुरु बोले हे भद्र! तुम श्री वीतराग की दीक्षा पालने को असमर्थ हो तो श्रावकबत अंगीकार करो। विनय श्री ने गुरु के पास विधान पूर्वक दीक्षा ली और विषय सुख से । निरपेक्ष होगई। जयकुमार ने गुरु के पास विधिपूर्वक श्रावकधर्म का आदर किया। वह कुमार विनयश्री को क्षमा पूर्वक नमस्कार कर,श्री गुरु के चरण कमलको वन्दना कर अपने नगर में चला गया। वहां श्री जिनभाषित धर्म को ग्रहण कर पालन करने लगा।
अब वह विनयश्री साध्वी सुव्रता नामक साध्वी के पास आचार-विचार सीखने लगी और शुद्ध F दीक्षा पालने लगी।
अन्त में ध्यान, तप और समाधि के योग से केवल ज्ञान को प्राप्त हई, फिर भूमण्डल में विचरती हुई गांव नगरर में बहुत से भव्य जीवो को प्रति योध देती हुई केवल ज्ञान की महिमा फैलाने लगी। अन्त में शुभ अध्यवसाय से आयु का क्षय कर मरण प्राप्त हो वह महासती मुक्ति के अखंडित शाश्वत सुख को प्राप्त हुई।
इतिश्री जिनेन्द्र पूजाष्टके परिमल बहुल कुसुममाला पूजायां वणिकसुना जिनमती व्याख्यानकं चतुर्थ कथानकं सम्पूर्णम् ।
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