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Acharya Sh Kailassagar Gyanmandit
بحبح
श्री वीतराग के आगे विधि पूर्वक दीपदान करता है, वह जीव बहुप्रकार रत्न, मणि, माणिक्यादि पाये, जो परम प्रकार भक्ति से दीपदान करे तो वह अपने भव २ के पापरूप पतंगों को दीपकवत् जला देवे, इसमें कुछ भीसंदेह नहीं है।
पूजा यह सुन धनश्री ने दीपक पूजा का प्रारंभ किया और श्री जिनराज की भक्ति में निश्चल होगई। ॥ ४२ ॥
वह प्रतिदिन श्री जिनराज के अगाडी मंडल की रचना कर दीप स्थापन प्रतिदिन करती थी. और जिनधर्म में दृढ़ रहती थी। इस प्रकार वे दोनों सखिर्या प्रतिदिन दीपदान त्रिसंध्याओं में करती अत्यन्त भक्ति राग से परिपूर्ण हो गई। दोनों एक चित्त हुई जिनधर्म का पालन करती थीं।
एक दिन धनश्री ने अपने माय का अन्त किसी प्रकार जान लिया। जिनमती के वचन से अनशनबत ग्रहण कर लिया, विधि पूर्वक अनशन पालन कर निर्मल लेश्या से पंच परमेष्टि महामन्त्र नमस्कार का स्मरण
किया। अन्त में मर कर सौधर्म देवलोक में देवी उत्पन्न हुई। वहां देव सुख भोगने लगी। इसके विरह दुःख से । | संतप्त जिनमती श्री जिनराज की दीपा पूजा में विशेष उद्यम करने लगी। एक दिन वह भी अायु के अन्त में
विधिवत् अनशन ले मर कर उसी सौधर्म देवलोक में जहां देवीधनश्री का विमान था, वहां ही देवी उत्पन्न हुई, बड़ी ऋद्धि, परिवार, दिव्यग्य प्राप्त हुई । इस देवी ने अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव का स्नेह देखा और दोनों देवियां मिली और पूर्ण स्नेह से रहने लगीं। एकदा वे दोनों देवियों ने अपने ऋद्धि का समुदाय देखकर "
الوحيوحنا
४२॥
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