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Acharya Sh Kailassagar Gyanmandi
جل جلاله
राजा राज्य करता है। राजा सर्व जगत् में प्रसिद्ध, प्रतापी और यशस्वी था, उसके बैरी गज समान धे और वह सिंह समान था।
उसी नगर में एक गुणवान, श्री वीतराग चरण कमल सेवक, सम्यकदृष्टि, वरदत्तनामकासेठ रहता । था। उसके घर में शीलभूषण, जिनधर्मरक्त, निर्मल गुणगणालंकृत, शीलवती नामक भार्या थी, उसकी कुक्षि गई
से सम्यक्तधारक, गुणवती, जिनमती नामक कन्या उत्पन्न हुई । वहां ही एक धनश्री नामक व्यवहारी की पुत्री है उसके साथ इस जिनमती का स्नेह और सन्त्री भाव है. वह सम्यक्त को धारण करती थी, बुद्धि में तेज थी इन दोनों के आपस में प्रम बहुत था। एक के सुखी होने से दूसरो सुखी रहती और 'दुःखी होने से दुःखित होती । इनका रूप, गुण, सौभाग्य, अवस्था भी सदृश थी।
इस प्रकार उन दोनों की प्रीतिलता परस्पर बढ़ती थी, एक दिन वह जिनमती श्री वीतराग के मन्दिर में श्री जिन पूजा करके सायंकाल को दीपक पूजा करती थी। यह देख धनश्री बोली हे प्रिय सखी! इस दीप 1 पूजा का क्या फल है? मैं भी त्रिकाल दीप पूजा करू? ऐसे उसके वचन सुन जिनमती बोली, हे भद्र ! श्री में प्रभु की भक्ति से जो विधि सहित दीप.पूजा करता है वह मनुष्य सुख और देवसुख पाकर अनुकम से मुक्ति । का सुख भी पाता है और दीप पूजा से अपनी देह में निर्मल बुद्धि उत्पन्न होवे । जो अखण्ड मन परिणाम से
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