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श्री० ए प्रकार
पूजा
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हो। यह सुन देवता 'तथास्तु' (वैसा ही हो ) ऐसा कहकर अपने स्थान चला गया । होली भी प्रसन्न हुआ अपनी स्त्री से सब वृत्तान्त कहा, वह बोली हे स्वामी ! तुम धन्य हो जो तुम्हारी भक्ति श्री जिनराज के चरणों में है इसीके कारण देवता भी तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हुआ है और वर देकर गया है ।
इस प्रकार उसकी स्त्री ने भी धर्म की अनुमोदना की, जो मनुष्य भाव शुद्धि से पुण्य का संचय करता 'उसकी यदि दूसरा मनुष्य अनुमोदन करे तो वह भी भव २ में सुख पाता है ।
क्षेमपुरी नगरी का स्वामी शूरसेन नामक राजा की विष्णुश्री नामक पुत्री थी, वह साक्षात् विष्णु की स्त्री लक्ष्मी के समान थी, उसका वर ढूंढने के लिये राजा ने देश, देशान्तरों से सब राजकुमारों को बुलाया और स्वयंवर मण्डप बनवाया । वह स्वयंवर अनेक पोल, सभा और राजसिंहासनों से सुशोभित था और नगरी के बाहर उद्यान खंण्ड में विराजमान था। जिसमें सुवर्णमय स्तंभ रत्न जटित थे, साक्षात् प्रधान देवभवनवत् प्रकाशमान था । राजकुमार आने लगे, अपने वस्त्र और आभूषणों से सजधज कर सिंहासनों पर बैठ गये, जिनके शरीरों में अद्भुत श्रृङ्गार था और पुष्पमाला और अतर, फुलैल की सुगन्धि से चारों ओर मण्डप को सुरभित कर दिया था । रत्न जटित स्वर्णमध, उच्च सिंहासनों पर बैठे हुए विमानारूढ देवकुमारवत् शोभा देते
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