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श्री० अट प्रकार
पूजा ॥ ४० ॥
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था। दोनों ही सावधान होकर हाथ जोड़ कर आश्चर्य से कहने लगे, हे भगवन् ! जैसा वचन आपने कहा वह सत्य है, हमने भी पूर्वभव का सम्बन्ध जाति स्मरण ज्ञान से जान लिया ।
अब लज्जित हुई विनय श्री कहने लगी, हे स्वामिन् मैं कहां जाऊं और क्या करू ? जो मेरे पूर्व भव का भाई था वह अब भर्त्ता हुआ । इसलिये मेरे जन्म को धिक्कार है और इस राज्य लक्ष्मी को भी धिक्कार है, जिससे मैंने लोक विरुद्ध, निन्दित कार्य किया । इस तरह पश्चात्ताप करती विनयश्री को मुनिपति ने कहा, हे भद्र े ! तुम मनमें दुःख मत करो, क्योंकि संसार में जीव कभी भर्त्ता होवे, कभी स्त्री, कभी पुत्र, कभी पिता, एवं कर्म की महाविम अवस्था है इससे मनमें खेद मत करो। इस प्रकार गुरु वचन सुन विनयश्री बोली हे मुनिवर ! आपने कहा सो सत्य है, जो अज्ञान रीति से करे तो दोष नहीं परन्तु जो आत्मा का हित चाहे वह जान बूझ कर करे तो संसार में अत्यन्त दुःख पावे ।
इसलिये मैं इस पूर्वभव के भाई के साथ संसार के सुख भोगना नहीं चाहती हूँ, अब मैं यावज्जीवन ब्रह्मव्रत का निश्चय करती हैं, अर्थात् जीवन पर्यन्त अखण्ड शीलव्रत धारण करूंगी। इसलिये हे भगवन् ! मुझे दीक्षा दीजिये, जिससे संसार के दुःखों को छोड़ कर संसार की कदर्पना छोडूंगी।
ऐसे विनयश्री के वचन सुन कर आचार्य बोले हे भद्र े ! तुझको धर्मकार्य करना उचित है तभी तेरा
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