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श्री अए
प्रकार
पूजा
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उन अंडों के युगल से समय पाकर दो बच्च े शुक और शुकी पैदा हुए। वह भी उन बालकों के साथ कुओं में क्रीड़ा करती थी। कभी २ उस राजा के शालक्षेत्र में बालकों को साथ ले जाती और कच चांवलों के सिरों को चोंच से खिलाती, इस तरह कीड़ा करते २ बहुत समय व्यतीत हुआ ।
एक समय वहां चारण श्रमण ज्ञानी मुनि आये, वहां एक ऋषभदेव स्वामी का मन्दिर था, उसको बन्दन करने लगे । उनका आगमन सुन नगर के नरनारी और राजा आदि सब उनकी बन्दना करने और श्रीजिन राज के दर्शन करने को वहां आये। मुनिराज ने धर्मोपदेश प्रारंभ किया, अन्त में सब सभाने अक्षत पूजा का महात्म पूछा। वे चारण श्रमण कहने लगे, हे भव्यो ! अखण्ड चांवलों से पूजा करते हुए अथवा सामने रखते हुए मनुष्य अखण्ड मुक्ति सुख पाते हैं ।
वहां ऐसा महात्म सुनकर राजादिक सर्व नरनारियों ने श्री जिनराज की अक्षत पूजा की । इस तरह उन लोगों को देख कर शुकी अपने पति से कहती है, हे प्रियतम ! आप भी अक्षतों से जिनराज की पूजा करो जिससे सिद्ध सुख प्राप्त हो। ऐसा सुनकर शुकराज ने अखंड अक्षत सुन्दर चोंच से ग्रहणकर जिनराज के आगे रख दिये, इस प्रकार दोनों बच्चों से भी माता ने कहा, एवं तीनों ने बड़ी भक्ति और श्रद्धा के साथ खेत से अक्षत लाकर पूजा की, अन्त में चारों ही शुभ ध्यान से मरकर देवलोक में गये। वहां देव संबंधी सुख भोगने लगे ।
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