Book Title: Ashtaprakari Pooja Kathanak
Author(s): Vijaychandra Kevali
Publisher: Gajendrasinh Raghuvanshi

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Page 84
________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूजा निषेध करता है वह नर हजारों भवों में फिरता है और कई दुःखों से सन्तप्त रहता है इस लोक में दारिद्र्य दुःख भांगे, और सुख, सौभाग्य रहित होता है। जो जिन पूजा में विघ्न करता है वह दुःख का भंडार होता है । ऐसे मुनि वचन सुनकर लीलावती पवन से कंशये हुए कदली वृक्षवत् भयभीत कंपायमान हुई कहने लगो । हे भगवन् ! मुझ पापिनी ने बड़ा अपराव किया है, यह कह कर उसने माला का सब वृत्तान्त मुनि से कहा। फिर विनती करने लगी है मुनिराज ! इस पाप की शुद्धि किस तरह होगी ? इस पापनी का पाप से छुटकारा कैसे होगा? यह सुन मुनिराज बोले हे भद्र े ! जिनपूजाके प्रभाव से, भाव शुद्धिके कारण पाप दूर होता है। ऐसे मुनि के वचन सुन विनय पूर्वक उठकर नमस्कार करके प्रार्थना की, हे भगवन्! आज से मैंने श्री जिनराज की पुष्प पूजा का यावजीव अभिग्रह लिया, तीनों संध्याओं में भक्ति के साथ पूजा करूंगी । इसी प्रकार जिनमती ने भाव शुद्धि से जिन पूजा की प्रतिज्ञा की । एवं मुनि वचन से प्रतिबोध पाई हुई वह लीलावती पश्चात्ताप से तप्त शरीर वाली कई परिजन और पुरलोकों के साथ निर्मल सम्यक्त युक्त परम श्राविका हुई । जहां तक धन का नाश न हो, बन्धुवियोग और विविध दुःख न हो तहां तक धर्म में उद्यम करने की प्रतिज्ञा ली, इस प्रकार प्रतिबोध देकर वे मुनिराज उस लीलावती से दान, मान सत्कार, पूजा, पाकर धर्म का उपदेश देकर अन्यत्र बिहार कर गये । For Private And Personal Use Only

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