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श्री अष्ट
वह जिनमती पड़ी सरल स्वभाव और अहंकार रहित है सम्यकत्व के रस से भरी हई दया पालती है। निर्मल बुद्धि से सदा परोपकार विचारा करती है। इस अवसर में रोती हुई लीलावती को देखकर कृपा के रस से पूजा
पूरित उसका शरीर होगया और नवकार मन्त्र स्मरण करने लगी। इसके प्रभाव से उसके हाथ से सर्प को निकाल कर अपने हाथ में पहिन लिया, इसके हाथ सुगन्धित पुष्पमाला हो गई। श्री जिनभाषित धर्म के प्रभाव से और निर्मल शीलवत पालन से देवताओं को भी वह जिनमती अत्यन्त प्रिय हुई। वहां इसी अवसर में विच
रते हुए युगल मुनियों का आना हुआ और लीलावती सेठानी के द्वार पर खड़े रहे, सखियों ने सेठानी को त सूचना दी, वह बाहर आकर वंदना करने लगी। मुनियों ने धर्मलाभ दिया। उनमें से बड़े मुनिराज ने लीलावती 1 से कहा हे भद्र! तू मेरे हितकारी वचन सुन, मैं तुम्हारे हित की कहता हूँ। तुम तीनों संध्याओं में उत्तम । सुगन्धित पुष्पों से श्री जिनराज की पूजा किया करो, जिससे देवताओं के विमान सुख भोग कर अन्त में मोक्ष सुख पात्रोगी । क्योंकि शास्त्र में कहा है
जो एक पुष्प से भी भक्ति और श्रद्धा से श्री जिनराज की पूजा करता है वह मनुष्य उत्कृष्ट संपत्ति पाता है और लक्ष्मी का पालक होता है और देवसुख भोगकर मोक्ष पाता है। जो ईर्षा से आशातना, और जिन
مصطلحلحوليد
जानिकारक
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