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श्री.अष्ट प्रकार
पूजा ॥ ३४ ॥
गाथा - जह उत्तम कुसुमेहि, पूर्य का उण वीयरागस्स ।
संपत्ता वणियसुया, सुरवर सुक्खं च मोक्खं च ॥२॥ संस्कृतच्छाया = यथोत्तम कुसुमैः पूजां कृत्वा वीतरागस्य ॥
___ संप्राप्ता वणिक सुता, सुरवर सुखं च मोक्षं च ॥२॥ व्याख्या - जैसे एक व्यवहारिक (वनिये) की लड़की ने श्री वीतराग भगवान् की उत्तम पुष्पों से पूजा करके देवताओं के सुख और मोक्ष सुख को पाया।
अथ कथा। इसी भरतक्षेत्र में एक उत्तर मथुरा नामक नगरी है। वह देश, देशान्तरों में विख्यात है. यहां यशस्वी " प्रतापी, प्रतिष्ठित, सूरतेज नामक राजा राज्य करता था। सुख शान्ति से उसकी प्रजा रहती थी, वहां ही सम्पक
दृष्टिमान् , विपुल संपदायुक्त, एक धनदत्त नामक सेठ रहता था। उसकी सुशील, पतिव्रता श्रीमाला नामक भार्या थी। इसकी कुति से एक पुत्री जिनमती नामक उत्पन्न हुई, इसका लघु भाई,प्राणप्रिय,गुणधर नामकथा, दोनों पहिन भाई इस सेठ के घर के भूषण थे।
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