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श्री अष्ट , सन्तोष है । राजा ने तपस्विनी पर प्रसन्न हो उसको एक कुटी बनवा दी, स्फटिक मणिमय चारों तरफ भीते हैं,
फार सोने के खम्भे, रत्न जटित आंगन, ऐसी सुन्दर कुटीदेवविमानवत् प्रकाशमान थी।उसमें रहते २ कितना ही समय ॥ से । व्यतीत हुश्रा । वह तापसी अन्त में आर्तध्यान से मर कर मैं शुकी हुई हैं। आपको और आपके पास रानी को
देखकर मुझको पूर्व तपस्या के कारण जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ है, जिससे आपका मेरा और रानी का पूर्व भव चरित्र स्मरण हो गया।
यह बात श्रीकान्ता रानी ने सुनी तो उठकर विलाप करती शुकी के पास आई और कहने लगी, हे भगवती! तू मर कर पंखिनी कैसे हुई ? इस प्रकार जब रानी ने बार२ कहा तब शुकी बोली, हे कृशोदरी! तू, कोई बात का दुःख मत कर। इस जन्म में मुझको दुःख है एवं बहुत जीव इससे भी अनन्त गुण कष्ट कर्म वश भोगते हैं। फिर शुकी ने राजा से कहा, हे राजन् ! इस दृष्टान्त से जैसे आप अपनी रानी के वश में हैं वैसेही मेरे वश यह पति शुकराज है। जो स्त्री पति से कहती है वह अवश्य करता ही है इसमें संदेह नहीं । यह वचन सुन राजा सन्तुष्ट हुआ और कहा इस सर्च दृष्टान्त सेतुम्हारी अनुमोदना के साथ तुम्हारी आज्ञा पालन करने की प्रसन्न दृश्रा हूँ। जो इच्छा हो सो मांगो, मैं देता हूँ। ऐसे राजा के वचन सुनकर शुकी बोली, हे राजन् ! यदि तुम .
V ॥२५॥ मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे पति को जीवन दान दो इससे अन्य मुझे कोई प्रयोजन नहीं । ?
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جليل علي الخليل
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