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यह बात केवली के मुख से निकलते ही कुमार सभा में से उठा और मुनि को प्रणाम किया। अपने माता पिता विद्याधरों को विनय के साथ विमान सौंपा और प्रणाम किया। विद्याधर पिताने भी उससे आलिंगन किया और आंसू गिराता हुआ विलाप करता खड़ा रहा, तब गुरु ने प्रतिबोध दिया । जयसुन्दरी ने अपने पति राज को सविनय प्रणाम किया और अपना स्नेह का कारण जताया दुःख से व्याकुल हो केवलीसे हाथ जोड़कर पूछने लगी- हे भगवन् ! पूर्व जन्म के किस कर्म से मेरे पुत्र का वियोग हुआ ? यह सोलह वर्ष मुझे अत्यन्त दुःख से बिताने पड़े । तत्र केवजी ने कहा पूर्व भव में तूने सूई के अंडे को प्रपंच कर सोलह मुहूर्त्त तक विरह किया था, जिससे इस भव में सोलह वर्ष तक पुत्रवियोग रहा। इस संसार में जीव सुख अथवा दुःख जैसा करता है। वैसा ही दूसरे भव में भोगता है। जो अब सुकृत करोगे तो अगाड़ी भव में शुभ फल पाओगे ।
ऐसे गुरु के वचन सुन रानी ने बड़ा पश्चाताप किया, राजा का भी मन दुःखित हुआ । इतने में वह रतिसुन्दरी नामक रानी सभा में खड़ी होकर कुमार और उसकी माता के सामने आकर अपने कुकर्मों की क्षमा मांगने लगी और इस प्रकार लज्जित हो नीचा मुख कर हाथ जोड़ बोली, हे महासती ! जो मैंने तुम्हारे साथ दुश्चरित्र किया और दुःख दिया उससे मैंने बड़े दुःखदायी कर्मों का बन्धन किया । इस प्रकार क्षमा मांगती हुई देख कर गुरु बोले तुम दोनों ने ही परस्पर ईर्षा छोड़ कर अपने २ कर्मों की क्षमा मांगी और पश्चात्ताप किया
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