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कारण मैंने सम्यकत्व अंगीकार कर वीतराग प्ररुपित पंचमहाव्रत की दीक्षा लेकर तप में आदर किया। इस प्रकार बहुत सी स्तुति कर, अपने आत्मा की निन्दा कर, आलोचना दे कर उग्र तपस्या के प्रभाव से घन घातिक कर्मों की राशि को हन कर शुक्ल ध्यानके चतुर्थ पाद को पहुंच गया। वहां निर्मल ज्ञान का उपार्जन कर शाश्वत मुक्ति स्थान को पहुंच गया ।
वह आर्या मदनावली भी बहुत वर्षों तक केवल ज्ञान की पर्याय पालन कर भव्य जीवों को प्रतियोध - संसार के दुःखों से छुड़ा कर स्वयं शाश्वत स्थान को पहुंच गई।
इति श्री पूजाष्ठ के गंधसुवासक्षेपोपरि मनावली कथा संपूर्णम्
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मूलगाथा = मयनाहि चन्दणा गरु, कप्पूर सुगन्ध मध्यधूवेहिं । पूजइ जो जिणचंद, पूजिज्जई सो सुरिदेहिं ॥१॥ संस्कृतच्छाया = मृगनाभि चन्दनागरु, कर्पूर सुगन्ध मध्य धूपैः । पूजयति यो जिनेन्द्र, पूज्यतेऽसौ सुरेन्द्रः ॥ ९ ॥
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