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एक दिन शुकराज की स्त्री ने अपने पति से कहा । हे नाथ ! शालिक्षेत्र से कच चावलों के सिरे खाने का मुझे दोहद उत्पन्न हुआ है सो कल अवश्य मेरे लिये लावें । ऐसी शुकी के मधुर वचन सुनकर शुकराज बोला । हे प्रिये ! यह श्रीकान्त राजा का शालिक्षेत्र है जो इसके कथ सिरे लेता है उसको पकड़ कर राजा कष्ट देता है और उसको जीवन से अलग कर देता है। ऐसे पति के वचन सुनकर शुकी बोली हे स्वामी ! तुम्हारे जैसे शुकराज किस काम के जो अपनी प्राण प्रिया स्त्री का मरण चाहता हो। ऐसे स्त्री के वचनों से अनादर और लज्जा पाकर अपने जीवन की परवाह न करके उसी राजा के शालिक्षेत्र में गया और कब मनोहर चावलों के सिरे लाकर स्त्री को दिये। स्त्री प्रेम से भक्षण कर अपना मनोरथ पूर्ण करती थी । उधर राजा के रक्षक पुरुष भी खड़े रहते थे तथापि शुकराज चतुराई के बल से प्रतिदिन शालमञ्जरी ला लाकर स्त्री को दिया करता था ।
इस प्रकार नित्य भक्षण करते २ कई दिन व्यतीत हो गये, एक दिन वहां स्वयं राजा शालिक्षेत्र देखने को आया और एक ओर से पंखियों से उजाड़े हुए खेत को देखा। आदर के साथ रक्षकों से पूछा, हे पालको ! कहो इस क्षेत्र को किसने ऐसा त्रुटित किया ! तब क्ष ेत्रपालक ने हाथ जोड़ विनती की, कि हे महाराज ! यहां एक कीर पक्षी आता है, हम लोग बहुत यत्न करते हैं तो भी मंजरी ग्रहण कर लेही जाता है और चतुर चोर के समान जल्दी उड़ जाता है। तब राजा ने कहा यहां पक्षियों का जाल बिछा दो और उस शुक पक्षी को पकड़कर
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