Book Title: Ashtaprakari Pooja Kathanak
Author(s): Vijaychandra Kevali
Publisher: Gajendrasinh Raghuvanshi

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Page 43
________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shil kailassaganser Cyanmandir अष्ट दू। इसी अवसर में राजकुमार का धूप का अभिग्रह भी संपूर्ण हुआ। प्रतिज्ञा सफल हुई, तब यक्ष को प्रणाम । न करके विनय के साथ कहने लगा, हे देव ! आपके दर्शन से ही मैंने सर्व मनोरथ पालिये। तब यक्ष ने फिर कहा, हे वत्स ! मैं तेरे पर अधिक सन्तुष्ट हुआ हूँ। शास्त्र में कहा है कि देव दर्शन और सत्पुरुष वचन कभी निष्फल नहीं होते। यह कह कर सन्तुष्ट हुए यक्ष ने सर्प के विष को मिटाने वाला रसायन सदृश एक देदीप्यमान रत्न दिया और बोला कि हे कुमार ! और कोई भी तेरा काम हो तो कहदे अभी पूर्ण करता है। तब विनयधर कुमार यक्ष को नमस्कारकर विनय के साथ बोला, हे देव ! यदि आप मेरे पर अत्यन्त प्रसन्न हुए हो तो मेरा कर्मकर (दास) का नाम नष्ट हो जाय और मूल कुल प्रगट हो, तब मेरे चित्त को सन्तोष उत्पन्न हो। यह सुन यक्ष बोला, तथास्तु, यह कहकर अन्तर्धान हो गया। राजकुमार भी श्री जिन भगवान् को प्रणामकर भक्ति के साथ इस प्रकार कहने लगा, हे जिनेन्द्र-स्वामी ! मैं अज्ञान से अन्धा हूँ। आपके गुण प्रकट गाँ करने और स्तुति करने को असमर्थ है-'मैंने आज जो श्री जिनराज के आगे धूप दान किया है उसका फल प्राप्त हो इस प्रकार कहकर धारंवार जिनराज को प्रणाम कर भाव वन्दना करता हुआ, अपनी आत्मा को कृतार्थ मा. नता हुआ अपने घर आया। F॥१५॥ For Private And Personal use only

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