Book Title: Ashtaprakari Pooja Kathanak
Author(s): Vijaychandra Kevali
Publisher: Gajendrasinh Raghuvanshi

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Page 52
________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shil kailassaganser Cyanmandir कानन विनय के साथ कहा यह तो मेरे ही देह का स्वाभाविक गन्ध है, अन्य धूप की सुगन्ध नहीं है। ऐसे वचन सुनते । तही राजा कुपित हुश्रा,सेवकों को आज्ञा दी, हे सेवको। इस दुष्ट के शरीर में मल मूत्रादि लगा कर नगर में फेरो जिससे यह सत्य बोले । इस प्रकार राजा के वचन सुन कर सेवकों ने वैसा किया । इधर वे यक्षयक्षिनी के जीव । देव भय से च्युत होकर मनुध्य भव में आये थे और वहां जिनधर्म साधन कर पुनः देवलोक में देवता हुए हैं-विमान में बैठ कर उस नगर ऊपर होकर केवली के पास जा रहे हैं। मार्ग में धूपसार के शरीर पर अशुचि लेपन देख 0 कर विमान को ठहराया । अवधि ज्ञान से पहिले का स्नेह जाना, तब उन्होंने उस पर सुगन्धित जल की वर्षा L की और पुष्प बरसाये और कहने लगे, हे कुमार ! तेरे शरीर पर पहिले से भी अधिक सुगन्ध होओ। ऐसा कहD कर देव-देवी आगे चले गये। अब उस कुमार के शरीर की गन्ध दशों दशाओं में विस्तृत (फैल) हुई। नगर के लोग बड़े आनन्दित हुए। राजा को भी खबर लगी तो उसने भयभीत होकर कुमार को राज सभा में बुलाया और प्रणाम कर कहने लगा-हे सत्पुरुष ! मैंने आपके साथ देष के कारण अशुचि विलेपन कराया, उसके लिए क्षमा करो। धूपसार ने । * कहा-राजन् ! इसमें आपका दूषण नहीं, मेरे ही पूर्व जन्म के कर्मों का फल है । जो जीव जैसे कर्म बांधते हैं उन حلحل الوحيد For Private And Personal use only

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