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चिकि
उस मुनि के शरीर की सुगन्धि पवन से सब बन में फैल गई। वहां के भँवरे पुष्पों को छोड़ कर साधु, के शरीर पर आकर बैठ गये और उपसर्ग करने लगे। कठिन दुःख सहन करता हुआ साधु धेय्यं धारण कर अपने ध्यान में लग गया और मेरु पर्वत समान अचल हो गया। इस प्रकार दुःख सहते हुए उसको एक पक्षी व्यतीत हुआ।
फिर वे राजा रानी तीर्थ बन्दना, पूजा और भावना कर उसी मार्ग से वहां भाये जहां मुनिराज उपसर्ग में खड़े थे। पास आने पर भी रानी को मुनीश्वर दृष्टि में न आये। तब स्वामी से पूछा, हे मियतम् ! जो साधु यहां देखे थे वे कहां गये ! उस जमह पर तो काला वृक्ष बनाम्नि से जला हुआ मालूम होता है। जब वे दोनों अत्यन्त समीप गये तय देखा कि काले भ्रमर सुगन्धि खोभ से मुनिराज के शरीरपर बैठे उन्हें डस रहे हैं।
जो इन्होंने उपकार किया था वह अवगुण हो गया, यह क्षण भर विचार कर विद्याधर राजा ने उन भंवरों को भटक कर शरीर से अलग क्रिया, तब मुनि के उपसर्ग का अन्त माया। चार घातिया कर्म (ज्ञाना. बरणी, दर्शनाचरणी, मोहनी कर्म और अन्तराय कर्म)चय हुए। जब सब दुःखों का नाश करने वाला मुनि को ।
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