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रानी के तीसरे मास में एक दोहद उत्पन्न हुआ। जिसकी चिन्ता से रानी प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। एक दिन रानी को अत्यन्त कृश देख कर राजा ने पूछा, हे प्रिये ! इतनी दुर्बल क्यों होती है ? तेरे मन में क्या मनोरथ है ? इस प्रकार जब राजा ने पूछा तब रानी प्रसन्न होकर कहने लगी, हे स्वामी! मैं मन में ऐसा विचार करती हूँ कि आप के साथ अष्टापद पर्वत तीर्थ पर जाकर वहां जो श्री वीतराग भगवान् की प्रतिमाए हैं, उनकी वासक्षेप से पूजा करू तो मेरा मनोरथ सफल हो ।
ऐसी शुभ बात सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और एक प्रधान विमान की रचना कराकर रानीसहित उसमें बैठकर वेग के साथ वह अष्टापद पर पहुंचा। वहां अच्छे सुन्दर पटह, ढोल, शंख और काहली आदि मनोहर वाय बाजने लगे। राजा ने रानी सहित विधि पूर्वक जिन प्रतिमा को मज्जनादि कराकर बड़े हर्ष के साथ वामक्षेप से पूजन की ।
अन्तर प्रसन्न हुए राजा रानी पर्वत से उतर कर एक यन में पहुंचे, वहां एक बन के कुश से दुःखदायी दुर्गन्ध प्रकट हुई, जिसको नासिका नहीं सह सकती थी। ऐसा जानकर रानी आश्चर्य पाकर अपने भर्तार से पूछती है, हे स्वामिन् ! यह प्रधान सुगन्धवाले पुष्पों से प्रफुल्लित वन में यह किस की दुर्गन्ध आती है ? यह मुझ को अत्यन्त असुन्दर लगती है। यह सुनकर राजा बोला हे प्रिये ! क्या तू नहीं जानती है ? यह तेरे मुख के -सामने ऊंची भुजा करके खड़े हुए मुनिराज विराजमान हैं। यह बड़ी शिला के तट पर खड़े हुए हैं। इनका देह
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