Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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नोट-उक्त कथनमें जैनोंकी संख्या बहुत ही बढ़ी हुई मालूम होती है । परन्तु संभव है कि इतनी बड़ी संख्या भगवान ऋषभ देवजी से लेकर किसी भी तीर्थंकर के मध्यान्ह कालमें इस भूमंडल पर रही हो; क्योंकि जैनियों के प्राचीन से प्राचीन मूल ग्रन्थों में इस धर्म के सिवाय अन्य किसी का धर्म उल्लेख ही नहीं पाया जाता, जैसा कि पहले बताये हुए अन्य धमेिं जैन तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है । इसीसे इस धर्म की विशालता और प्राची. नता सिद्ध होती है।
२. महामहोपाध्य पं० गंगानाथ मा एम० ए० डी० एल० एल० इलाहाबाद --'जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खंडन पढ़ा तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ रहस्य भरा हुआ है जिसको वेदान्त के आचार्य ने बिलकुल नहीं समझा । जो कुछ अब तक मैं जैन धर्म को जान सका हूं उससे मेरा यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि यदि वे (शंकरचार्य) जैन धर्म को और उसके असल ग्रन्थों को देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म से विरोध करने की कोई बात ही न मिलती'।
नोट-उक्त सम्मतिसे यह सिद्ध होता है कि शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खंडन कपोलकल्पित और भ्रमात्मक है।
३. महामहोध्याय डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम० ए०, पी० एच० डी०, एफ० आई० आर० एस० सिद्धान्त महोदधि प्रिंसिपाल संस्कृत कालेज-कलकत्ता
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