Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 108
________________ ११० की हस्ती ही क्या है जो अविनाशी आत्मापर घात पहुंचा सके। अगर भगवानके प्रति मेरी सच्ची भाक्ति है तो अर्जुन माली मेरा बिगाड़ ही क्या सकता है क्योंकि सत्यकी तो सदैव विजय होती है। इस प्रकार विचार करते हुए सेठ सुदर्शन गांवके बाहर श्रा गये । थोड़ी देरके बाद अर्जुन मालीकी दृष्टि सेठपर पड़ी । वह अपना मुग्दर लेकर शेरकी तरह लपकता हुआ वहां आ पहुंचा। अर्जुनकी इस लपकसे सेठ तिलमात्र भी भयभीत न हुए, अपितु प्रभुका ध्यान करते हुए परम शांति और प्रसन्नताके साथ जमीनपर बैठ गये। अर्जुनने पास आते ही मुग्दर उठाया और सुदर्शनको मारना चाहा । ज्यों ही उसने अपना मुग्दर सिरपर उठाया त्योंही उसके हाथ वहींके वहीं रह गये । बहुतेरा प्रयत्न करनेपर भी उसके हाथ नीचे न आ सके। यह देखकर अपनी शक्तिपर उसे बड़ा ही क्रोध आया । लज्जाके मारे वह इधर-उधर झुंझलाने लगा और टकटकी लगाकर सुदर्शनजी की ओर देखने लगा। अन्तमें जब अर्जुनने अपने मन ही मन हर प्रकारसे हार मान ली तबतो उसके शरीरमें जो असुर गत छै महीनोंसे घुसा हुआ था छोड़कर भाग गया। इसके बाद अर्जुन अचेत हो धरतीपर गिर पड़ा । सेठ सुद शनके सत्याग्रही पूर्ण विजय हुई। थोड़ी देर बाद जब अर्जुनको चेत हुआ तब तो उसने बड़ी नम्रतासे मुदर्शनजीसे पूछा-'भाई ! आप कौन हैं ? कहां रहते हैं और कहां जा रहे हैं ?' सुदर्शनजीने कहा-'भाई ! मेरा नाम सुदर्शन है; मैं इसी गांवमें रहता हूं और श्रमण भगवान महावीर के दर्शन तथा वन्दनाको जा रहा हूं।' यह सुन अर्जुनका मन भी भगवान के दर्शन, बन्दनादि के लिये अकुलाया । वह बोला-'भाई ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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