Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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रखा था जो कि राजा श्रेणिकके सम्पूर्ण राज्यकी अनुपम विभूति थे । जब राजा कौणिक राज्याधिकारी हुए तो उन्हें लोभने घेरा । उनकी इच्छा उस हाथी और हारको लेनेकी हुई। लोभ दुनिया में क्या नहीं कराता, यह तो आत्माका भयंकर रिपु है । क्योंकिः
न पिशाचा न डाकिन्यो न भुजंगा न वृश्चिका : । सम भ्रांत यनिर मनुजं यथा लोभो धियं रिपुः ।।
कौणिक राजाकी यह दुईच्छा जब बहलकुमार को मालूम हुई तब वह अपनी उक्त दोनों बहुमूल्य चीजोंको लेकर भाग निकला। भागकर वह अपने नाना वैशालीके राजा चेड़ाके यहां चला गया। राजा चेड़ा बहुत धर्मपरायण एवं जैनधर्मका कट्टर अनुयायी था। उसके आस पासके इतर राजागण भी जैनधर्मी थे। जब राजा कौणिक को बहल कुमारके चले जानेका पता लगा तब उसने राजा चेड़ाके पास दूत भेजे और कहा कि 'बहलकुमार हाथी और हार लेकर चला आया है उसे वापिस करो।' इसपर राजा चेड़ाने उत्तर दिया कि यदि तुम हाथी और हार लेना चाहते हो तो अन्य भाइयों के समान बहलकुमारको भी अपने राज्यका हिस्सा दो । अन्यथा वे चीजें तुम्हें नहीं मिल सकतीं । इस उत्तरको पाकर राजा कौणिक आपसे बाहर हो गया। उसने तुरन्त लड़ाईकी तैयारी कर ली। इधर राजा चेड़ाने भी भविष्य विचारकर अपनी सेनाको तथा अपने सामन्त राजाओंको सहायतार्थ संग्रामके लिये तैयार हो जाने का संदेशा भेजा । ये राजागण सब जैनधर्मी थे। वे राजा चेड़ाके आदेशानुसार सब एकत्रित हुए और युद्धके कारणों पर उन्होंने विचार किया। शास्त्र और व्यवहार का विचारकर वे राजालोग
चेड़ा से बोले 'राजन् ! हम लोग जैन धर्मी हैं जिसका मूल तत्व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com