Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 135
________________ १३७ इस उपदेशमें प्रभुने भव्य जीवोंके उपकारार्थ चार पुरुषार्थ अर्थात्-धर्म अर्थ, काम और मोक्षका दिव्य संदेश संसार के कल्याणार्थ सुनाया। जिसमें अर्थ और काम ये पुरुषार्थ तो मनुष्य सरलतासे बचपनसे ही कुछ न कुछ साध लेता है। परन्तु धर्म और मोक्ष ये पुरुषार्थाका कार्य कारण सम्बन्ध होनेसे कुछ कठिनाई जाती है । धर्म मोक्षका कारण है। जो धर्म जीवात्मा को मोक्षतक नहीं ले जाता वह धर्म ही धर्म नहीं कहला सकता। अस्तु । प्रभु महावीरने अपनी अन्तिम देशनामें धर्म पुरुषार्थके दस लक्षण वर्णन किये हैं वे उस प्रकार हैं-(१) उत्तम क्षमा (२) उत्तम मार्दव अर्थात् मृदुता (३) उत्तम आर्जव अर्थात सरलता, निष्कपटता (४) शौच अर्थात् आत्माकी अन्तशुद्धि और बहिशुद्धि दोनों ( वहां किसी-किसी शास्त्रों में लाघवे अर्थात् लघुता याने निर्मोहतों को बताया है ), (५) सत्य अर्थात सच्चाई (६) संयम अर्थात इन्द्रियों को वशमें करना (७) तप अर्थात उपवास नियम योगाभ्यास इत्यादि (5) त्याग अर्थात् बाहरी वस्तुओं से मनको हटाकर आत्मज्ञानमें तत्पर होना (8) आंकञ्चन अर्थात् निर्लोभता, निर्व्याजता याने परिग्रह रहित होना (१०) ब्रह्मचर्य अर्थात् शील धर्म सेवन करना । इन दसों अंगका सीधा साधा निकटतम संबंध प्रात्मासे है। और इन्हीं के सहारे यह आत्मा अपने निज स्वभावमें आकर परमात्मपद अर्थात मोक्षको प्राप्त कर लेता है। और भव सागरकी कंटकीर्ण उलझनों से सदाके लिये छुटकारा पाजाता है । तत्पश्चात् गौतमस्वामी ने प्रभुसे अवसर्पणी काल के पांचवे और छठे आरेका वर्णन पूछा । प्रभुने उसका भी उत्तर अद्योपान्त वर्णन किया। इसके बाद प्रभुने गौतमस्वामी को देवशर्मा ब्राह्मण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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