Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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गौतमस्वामीको केवल ज्ञान
प्रभुकी आज्ञा लेकर गौतम स्वामी तो देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिवोध करनेके लिए गए हुए थे और जब उस प्रतिबोध करके वापस लौट रहे थे, तब उन्होंने अचम्भेके साथ इस भूमण्डलको रत्नोंसे प्रकाशमान होते हुए देखा । परन्तु उनका अन्तःकरण कांच के समान बिलकुल उज्ज्वल था। भगवान के निर्वाणकी घटनाका प्रतिबिम्ब उनके अन्तःकरणपर राह चलते-चलते पड़ने लगा । लोगों द्वारा सुननेके बाद तो उनके मनपर ऐसा विचित्र प्रभाव पड़ा कि ( भगवानपर अत्यधिक स्नेह होने के कारण )वे संसारमें साहस हनि हो गये । उनका हृदय शोक और संतापसे भर गया। उनके हृदयमें नान प्रकारके भाव तरंगोंकी धूम मच गई । वे दुखी होकर मन ही मन कहने लगे 'हे भगवन् ! मैंने तो गुरु, देव, कुटुम्बी एवं अपना सर्वेसर्वा आप ही को समझ रखा था। ऐसे समयम तो कुटुम्बी जन सब पास बुला लिये जाते हैं यह लोकव्यवहार है; परन्तु प्रभु ! आपने तो मुझे उलटा अपने पाससे हटा दिया अर्थात् लोक व्यवहार तकको नहीं पाला । हे प्रभु ! श्रापको निर्वाण हीमें पधारना था तो मेरे सम्मुख भी वैसा कर सकते थे मैं तो उसमें बाधा पहुंचा ही नहीं सकता था। फिर ऐसी कृपा क्यों न की। हाय ! यह संसार असार है यहां कोई भी किसीका चिरस्थायी रूप बनकर नहीं रह सकता । सब हीको अपने अपने मार्गसे जाना होगा।'
इस प्रकार भांति-भांतिकी भावना उनके मनमें आते ही प्रभु के प्रति उनकी जो ममता थी यह छिन्न-भिन्न हो गयी और उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया।
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