Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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को प्रतिवोध करने के लिये एक पासकी बस्तीमें भेजा । प्रभु आज्ञा को धारण कर वे देवशर्मा बाह्मणको प्रतिबोधित करने के लिये चले गये और रात्रिको वहीं ठहर गये।
यह रात्रि कार्तिक कृष्ण अमावंशकी थी। उसी रात्रिमें भगवानने अपनी श्रीसुखसे सुख विपाक और दुःख विपाकके पचपन पचपन अध्यायों का प्रतिपादन किया। इसके अतिरिक्त छत्तीस अपृष्ट व्याकरण का प्ररूपण भी बिना प्रश्नके ही किया । जब इस प्रकार अखंड देशना उस रात्रिमें प्रभु कररहे थे कि इन्द्रका सिंहासन डगमगाया । वह तुरन्त समझ गया कि भगवान का निर्वाण काल निकट आ पहुंचा । बस फिर तो वह शीघ्राति शीघ्र अपने परिवार सहित प्रभु की सेवामें आकर उपस्थित हुआ । वन्दना नमस्कार कर प्रभुसे विन्ती करने लगा कि 'हे भगवन ! आपकी राशि पर दो हजार वर्षका भरमगृह आया है उसके आनेसे संसार में आपत्तियों की भरमार हो जावेगी। साधु साध्वियोंका मान न रहेगा । धर्ममें रुचि हट जावेगी इसलिए आप अपनी आयु दो घड़ाके लिये वढा लीजिए जिससे वह ग्रह आपकी उपस्थितिमें आ जावे तो आपके तपके योगसे वह बिलकुल निस्तेज होकर अनर्थ न करेगा।'
इसपर प्रभुने कहा-'शकेन्द्र ! यह तुम्हारा मोह मात्र है ! आयु तो कर्माधीन है। अनन्त बलवीर्यवाला भी उसे न घटा सकता और न दिलभर बढ़ा सकता, और न कभी ऐसा हुआ है न कभी होगा ही । भवितव्यता तो प्रबल है। जो होनेवाला है वह होकर ही रहेगा । जब यह भस्म गृह उतरेगा. उसके बाद पुनः साधु साध्वियोंका उदय पूजा सत्कार होगा और अहिंसा धर्मका झंडा फहरायेगा ।' कदाचित उक्त वाक्यका संकेत इसी कालसे हो जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com