Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ १२४ लाख बार धिक्कार है । तू इसी समय जा अपने कृपालु पिताको बंधनोंसे मुक्त कर ।' माताके ऐसे मार्मिक वचन सुन कौणिकने अपनी तलवार उठाई और अपने पिताको मुक्त करने के लिये चल दिया । पिताने ज्योंही उसे नंगी तलवार हाथ में लिये हुए आता देख त्योंही उनके मनमें शंका प्रतिशंकाएं उठने लगीं। वे सोचने लगे कि पहले तो इसने मुझे कैद खानेमें डलवाया और अब यह नीच मुझ जानसे वंचित किया चाहता है । ऐसा मनमें विचार कर वे सोचने लगे कि 'अत्याचार और अन्याय चाहे वह बड़े से हो या छोटे से, राजासे हो अथवा प्रजासे, ऊँचसे हो चाहे नीचसे, वह किसी भी हालतमें क्षमाके योग्य नहीं होना चाहिये । अन्याय और अत्याचार को सहन करने वाला या उनको सहयोग देने वाला अन्यायी और अत्याचारीसे भी बुरा और भयंकर होता है । वीर पुरुप के लिये पराधीनताका जीवन त्याज्य और असह्य है।' इतना विचार मनमें आते ही राजाने अपनी हीरेकी अंगूठीकी ओर देखा और अपने इष्ट का स्मरण कर उसे चूंस डाला। चूंसते ही राजा तो परलोक वासी हो गये और कौणिक पछताते रह गये । इसी रंजमें कौणिक ने अपनी राजधानी राजगृहीसे हटाकर चंपापुरीमें कायमकी और वहीं रहने लगा। अबतो सम्पूर्ण राज्यका स्वामी राजा कौणिक हो गया और उसने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपना सम्पूर्ण राज्य ग्यारह हिस्सों में बांट दिया राजा कौणिकका एक छोटा भाई और था उसका नाम वहलकुमार था और वह राजा कौणिकके ही पास रहता था। राजा श्रेणिकने एक सुन्दर हाथी तथा एक बहुमूल्य हार उसे दे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144