Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 129
________________ १३१ वाक्वाणों की वर्षा करने लगा। इस बार भगवानने ही उसका उत्तर देना उचित समझा, वे बोले 'गोशाला ! अपने शिक्षा और दीक्षा गुरुसे ही ऐसा घणित व्यवहार ? जिससे तूने शास्त्रों का ज्ञान पाया, तेजोलेश्याकी प्राप्ति की उसके प्रति ऐसा कठोर व्यवहार तुझे शोभता नहीं । यह तो तेरे ज्ञानकी निर्बलता है । क्रोध अज्ञानका लक्षण है । ज्ञान और तपकी शोभा विनय और शांतता है । अतः तू अब भी चेत ।' ___ इतना सुनते ही उसके क्रोध का पारा और बढ़ गया। इस बार उसने भगवान के प्रति ही अपनी तेजोलेश्याका व्यवहार किया। परन्तु भगवानके घनघाति कर्म तो नाश ही हो चुके थे, उनपर इस लश्याका क्या असर होनेवाला था। वह अब तो पूर्ण वेगले गोशाला के तरफ ही लौटी और उसे भस्म करना प्रारम्भ कर दिया । गोशाला हिम्मतका पक्का हो चुका था । लेश्या छोड़नेके बाद वह प्रभुते कहने लगा कि 'अब कैसे बचोगे, 2 महीने बाद ही इस शाक्त द्वारा तुम्हारा निधन हो जावेगा।' इसपर सर्वज्ञानी प्रभुने उत्तर दिया कि 'मेरी आत्मा तो इस समय अर्हन्तावस्था भोग रही है और वह ठीक सोलह वर्ष इसी अवस्था में रहेगी परन्तु तेरा तो निधन आजसे सातवें दिन हो जावेगा। इसलिए तू अपने शुद्ध स्वरूपका स्मरण कर । अपनी कुत्सित भावनाओं का ध्यान तज दे जिससे तेरा अन्त सुधर जावे ।' तेजोलेश्याके उलट प्रभावसे पीड़ित होकर गोशाला मूक सा बन गया था । गौतमादि शिष्यगण उसे बार-बार प्रबोधित करते थे पर छै दिनतक उसपर कुछ भी प्रभाव न पड़ा । उसके जीवनका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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