Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 124
________________ १२६ 'अहिंसा है । अहिंसा कायर और निर्बलों का धर्म नहीं है। वह तो चिरकालसे वीर पुरुषों का धर्म रहा हुआ है। हम लोग तो गृहस्थ हैं। गृहस्थी विरोधी हिंसाका त्यागी नहीं हो सकता । इस युद्ध में तो विरोधी हिंसाका सामना है। यदि कोई आततायी उपद्रवी अपने धन, राज्य या अपने शरणागतोपर आक्रमण करे तो उसे हटाना कर्त्तव्य है । न्यायकी प्रतिष्ठा ही वास्तविक अहिंसाकी प्रतिष्ठा है । आंखोंकी प्रतिष्ठा है । आंखों के सामने अन्याय होता देखकर जो मौन रहता है वह अहिंसाका भक्त नहीं है । अन्याय और अत्याचारोंको मिटाकर शांति फैलाना और दुःखियों के दुःख को दूर करना यह अहिंसाकी सच्ची प्रतिष्ठा है। इसी प्रतिष्ठा की रक्षा करना सच्चे जैनी एवं क्षत्रीका धर्म है' इत्यादि वचन कह वे बहल कुमारकी रक्षाके हेतु सम्पूर्ण युद्ध सामग्रीके साथ युद्धस्थलमें उतर पड़े । उधर कौणिक भी अपनी सेना लेकर चेड़ा राजापर चढ़ आया । बस दोनों तरफसे युद्ध प्रारम्भ हो गया । धर्म युद्धके नाते रथीसे रथी और घुड़सवारसे घुड़सवार, पैदल सेनास पैदल सेना भिड़ गयी । भयंकर युद्ध हुआ और इसी युद्धमें वाण द्वारा कालि कुमार मारे गये जैसा कि भगवानने रानी काली माता को उपर दर्शाया है। अभिप्राय यह है कि जैनियोंका अहिंसा धर्म यह कभी नहीं कहता कि अपनी जान, अपने माल, अपनी औरत, अपने धर्म अपने नातेदार अथवा अपने शरणागतोंपर आई हुई आपत्तियोंको दूर करने के लिए 'अहिंसा' वाधा पहुंचाती है। अपितु 'अहिंसा धर्म की आड़में कायर व डरपोक बनकर अन्यायों और अत्याचारों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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