Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 109
________________ १११ सुदर्शन ! मैं तो जातिका माली हूं; मेरी भी इच्छा भगवान के दर्शन करने की है। उनके उपदेश सुनकर मैं अपना जन्म सफल करना चाहता हूं। आपके साथ चलकर क्या भगवान तक मेरी भी पहुंच सम्भव है ?' इसपर सुदर्शनजी बोले-'निस्सन्देह ! तुन एक बार क्या, सौ बार भगवान की शरण में परम हर्षके साथ जा सकते हो । जाति-पाति का वहां कोई भी भेद नहीं है। उनके शिष्य और शरणागत होनेमें देश, काल और पात्र जरा भी बाधक नहीं बनते । तुन अवश्यमेव मेरे साथ वहां चल सकते हो।' यह सुनकर हर्षायमान हो अर्जुन सेठ सुदर्शनके साथ भगचानके पास जाने को उठ खड़ा हुआ। वे दोनों भगवानके पास आये । विधिवत् वन्दन कर वे भगवान के सामने बैठ गये । परम सुन्दर, जगत हितकारी भगवान का उपदेश सुनकर सुदर्शनजी तो अपने घर को आगये और अर्जुन माली भगवानका शिष्य बनकर चहीं रहने लगा। अव तो वह अर्जुन पहले का नर-संहारक अर्जुन न रहा। भगवानके उपदेशामृतसे उसने बेले-बेले की तपस्या आरंभ कर दी। अर्थात् दो-दो दिन अनशन और एक दिन भोजन करने लगा। जिस दिन अर्जुन पारणे के लिये भोजन सामग्री उस गांवमें लेने को जाता तो गांवके लोग उसे पूर्ववत् हिंसक समझकर नाना प्रकारकी यातनाएं देते और कभी-कभी तो यहां तक नौवत आजाती कि वहांसे उसे बिना भोजन ही लौट आना पड़ता था । उन सारी यातनाओं को अर्जुन मुनि हंस हंस कर सहते और कभी रोष एवं क्रोध न करते । पूर्वकृत कर्मों का फल तो भोगना हो पड़ेगा ऐसा समझकर अर्जुन मुनि अपने कर्जे को चुकाते । यों अर्जुन मुनि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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